अमेरिका के बारे में एक बात प्रचलित है कि, दुश्मन को डसने के लिए अमेरिका जिस भी साँप को दूध पिलाता है, वह साँप उसी को ही वापस डस लेता है। इस बाट के अनेक उदाहरण इतिहास में भरे हुए हैं.
अमेरिका ने शीत युद्ध के दौरान या उसके बाद भी विश्व में अनेक कूटनैतिक मिशन, गृह-युद्ध और अपने हथियारों की बिक्री के लिए देशों की आपसी झड़पों, लड़ाइयों और तनाव को बढ़ावा दिया, जैसे एशिया में भारत-पाकिस्तान, नॉर्थ कोरिया-साउथ कोरिया, ईरान- इराक, जोर्डन, मिस्र, सीरिया, लेबनान, इसराइल, यूरोप में तुर्की से लेकर चेक रिपब्लिक (Czech Republic) तक मध्य यूरोप के देश, अफ्रीका महादीप में लीबिया से लेकर बोत्सवाना तक, लेकिन अंजाम फिर वही हुआ और आज वे देश या तो चीन के पाले में चले गए या स्वतंत्र नीति के साथ बहुध्रुवीय (Multipolar) व्यवस्था में रह रहे है।
अमेरिका ने रूस के लिए मुजाहिद्दीन को तैयार किया
अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपने दुश्मन रूस से लड़ने के लिए, तालिबान (ओसामा बिन लादेन, अल जवाहरी जैसे आतंकवादी) और अन्य कई मुजाहिद्दीन संगठनों को तैयार किया, लेकिन उन्होंने किस तरह से अमेरिका को नुकसान पहुँचाया और अभी भी जारी है, आज एक इतिहास से लेकर वर्तमान भी है।
दूसरा उदाहरण ISIS का है, जिसको अमेरिका ने एक बार फिर रूस को मात देने, और सीरिया में ईरान समर्थित असद सरकार की उखाड़ने फेकने के लिए खड़ा किया लेकिन अंत में वही अमेरिका के लिए नासूर बन गया है और पूरी दुनिया के मुस्लिम देशों में अमेरिका की जनता एवं अधिकारियों के लिए ISIS एक ‘आल टाइम’ वाला खतरा है।
चीन ने भी किया ‘खेला’
चीन को रूस का प्रतिद्वंदी के रूप में स्थापित करने के लिए और रूस को दबाने के लिए अमेरिका ने 60 के दशक से ही चीन को आगे बढ़ाने का काम शुरू कर दिया था। उसको सैनिक क्षेत्र से लेकर अंतरिक्ष, और गहन जैविक रिसर्च (कोविड़ का जनक) के लिए अरबों डालर अनुदान में लुटाए, दुनिया के सभी सामानों का उत्पादन केंद्र ( Production Hub) बनाने के लिए आर्थिक से लेकर राजनैतिक सहायता की, लेकिन अमेरिका के साथ फिर वही उलटा खेल या “खेला” हो गया।
वर्तमान में चीन, अमेरिका से तकनीकी मामलों में कई वर्ष आगे है, आर्थिक तौर पर आधी से जायद दुनिया चीन के कर्ज के तले दाबी हुई है। दुनिया के 60 से 70 प्रतिशत से अधिक उपभोक्ता उत्पाद (Consumer Products) चीन में या चीन के द्वारा बनाये हुए होते हैं। चीन का इस विस्तरत मार्केट अमेरिका और यूरोप के साथ साथ उनके द्वारा कर्ज के बोझ में दबे देश भी होते हैं। चीन की ‘डेट ट्रैप पॉलिसी’ या ‘ऋण जाल नीति’ में दुनिया के अधिकतर देश फंसे है और उनको अपने हथियारों, सैनिक जरूरतों, तकनीकी साजो-सामान और अन्य मशीन, धातु या अंतरिक्ष संबंधित समान का आयात का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा चीन से ही लेना होता है। इस तरह चीन विश्व की एक प्रमुख आर्थिक शक्ति है, जिसकी अनदेखी कोई भी नहीं कर सकता है।
अमेरिका के सहारे खड़ा हुआ चीन अब अमेरिका के सर के बहुत ऊपर निकल गया है और जहाँ पहुंचना अमेरिका के लिए शायद कई दशकों तक संभव न हो सके।
अमेरिका की असफल रणनीति
अमेरिका ने दुनिया की रेस में तीन चौथाई दाँव शायद लगड़े घोड़ों पर ही लगाए है। और हमेशा की तरह अपनी एतिहासिक और बार-बार की गलतियों से न सीखने वाला अमेरिका एक बार फिर, नई गलती के लिए उठकर तैयार हो रहा है और इसकी बानगी इस्राइल, नॉर्थ कोरिया, बांग्लादेश, ताइवान, तुर्की, यूरोपीय देशों के अलावा विश्व के कई अन्य देशों के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बदलती नीतियाँ हैं।
मीडिया की खबरों के अनुसार अब अमेरिका सरकार की अब असली चिंता चीन है, न कि रूस और इस दिशा में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा रक्षा नीति के लिए अंडर सेक्रेटरी पद पर एल्ब्रिज कोल्बी को नॉमिनेट किया गया है
एक तरफ अमेरिका के लिए इन दिनों चीन और रूस दोनों तरफ से परेशानी खड़ी हो रही है. उसे दोनों ही देशों से चुनौती मिल रही है, लेकिन एक रिपोर्ट की मानें, तो उसकी असली चिंता अब ड्रैगन है. खासकर इंडो-पैसिफिक में जहां चीन के खिलाफ अमेरिका के लिए भारत ही एकमात्र सबसे ताकतवर साथी हो सकता है. अगर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा रक्षा नीति के लिए अंडर सेक्रेटरी के पद पर नॉमिनेट एल्ब्रिज कोल्बी को सीनेट की मंजूरी मिल जाती है, तो इससे यह धारणा और मजबूत होगी कि वॉशिंगटन के लिए अब असली चिंता का कारण बीजिंग है, न कि मॉस्को.
रिपोर्ट्स के अनुसार, कोल्बी ट्रंप अधिकारियों में सबसे मुखर हैं, जो यह तर्क देते हैं कि अमेरिका का ध्यान यूरोप और रूस से हटाकर चीन और इंडो-पैसिफिक में उसकी बढ़ती चुनौतियों पर केंद्रित होना चाहिए. उनके लिए, अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में कुछ भी उतना मौलिक रूप से अमेरिकी हितों के लिए खतरनाक नहीं है जितना कि इंडो-पैसिफिक पर संभावित चीनी “वर्चस्व”, जो अमेरिकी सुरक्षा, स्वतंत्रता और समृद्धि को गंभीर रूप से कमजोर कर सकता है.
ताइवान के लिए कभी ‘हाँ’ तो कभी ‘न’
हालांकि, अगर कोल्बी को सीनेट आर्म्ड सर्विसेज कमेटी की बैठक में अपनी कन्फर्मेशन सुनवाई के दौरान कठिन सवालों का सामना करना पड़ा, तो वह भी रिपब्लिकन सीनेटर टॉम कॉटन (आर-आर्क) की अगुवाई में था, और यह उनके ताइवान की रक्षा के बारे में “बदलते” विचारों पर था. सीनेटर कॉटन ने उनसे पूछा, “पिछले कुछ सालों में, आपने कहना शुरू कर दिया है कि ताइवान हमारे लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन यह हमारे लिए अस्तित्व का सवाल नहीं है या यह हमारे लिए आवश्यक नहीं है. क्या आप हमें समझा सकते हैं कि आपने ताइवान की रक्षा के बारे में अपने रुख को थोड़ा नरम क्यों कर लिया है?”
यूरेशियन टाइम्स में प्रकाशित खबर के मुताबिक, कोल्बी ने जवाब दिया कि उन्होंने हमेशा कहा है कि ताइवान संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए “बहुत महत्वपूर्ण” है, लेकिन उन्होंने तर्क दिया कि यह “अस्तित्व का सवाल” नहीं है, अमेरिका और चीन के बीच “सैन्य संतुलन” में बदलाव को देखते हुए. उन्होंने कहा, “जो बदला है, सीनेटर, वह है सैन्य संतुलन का नाटकीय रूप से बिगड़ना.” यह बताते हुए कि चीन के प्रभाव क्षेत्र में मुकाबला करने के लिए हमारी ओर से “तैयारी की कमी” है, उन्होंने कहा, “यह एक निरर्थक, अत्यधिक महंगे प्रयास में शामिल होने से अलग है जो हमारी सेना को नष्ट कर देगा.”
कोल्बी ने तर्क दिया कि ताइवान का रक्षा खर्च उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3 प्रतिशत से भी कम है और इसे बढ़ाकर 10 प्रतिशत करना चाहिए. उनके अनुसार, ताइवान में अपनी रक्षा क्षमताओं को मजबूत करने की “चिंताजनक कमी” है. गौरतलब है कि ताइवान के राष्ट्रपति विलियम लाई ने पिछले महीने रक्षा खर्च को इस साल के 2.45 प्रतिशत से बढ़ाकर जीडीपी का 3 प्रतिशत करने का वादा किया था, ताकि अमेरिका में ट्रंप को यह दिखाया जा सके कि ताइवान अपनी रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है. लेकिन लाई की मुख्य समस्या ताइवान की विपक्ष-प्रभुत्व वाली विधायिका (युआन) है, जिसने इस साल रक्षा बजट में कटौती को और फ्रीज कर दिया है.
हालांकि, कोल्बी ने सीनेटरों से कहा कि वह द्विपक्षीय संचार और नीति सलाह जारी रखेंगे, और ताइवान से अपनी सैन्य ताकत को दक्षिण कोरिया के स्तर तक बढ़ाने का आग्रह करेंगे, जिसे उन्होंने “न केवल संभव, बल्कि अमेरिका के लोगों और सैनिकों के लिए उचित माना, जिन्होंने इसकी रक्षा में भारी निवेश किया है.” कोल्बी का वर्तमान सिद्धांत, जिसे वह रक्षा उप सचिव के रूप में पुष्टि होने पर आगे बढ़ाना चाहेंगे, “डिनायल” की रणनीति है, जिसे “चीन का पहला द्वीप” कहा जाता है, जो चीन को ताइवान पर कब्जा करने से रोक सकता है.
अमेरिका के लिए चीन सबसे बड़ी चिंता होने के कारण अब वह इंडो-पैसिफिक (हिन्द-प्रशांत) महासागर क्षेत्र में एक अहम और भरोसेमंद देश भारत का साथ चाहता है, लेकिन इतिहास में अमेरिका द्वारा की गई भारत विरोधी गतिविधियाँ और विश्वासधात के कारण भारत भी फूँक फूँक कर आगे बढ़ रहा है और अन्य देशों के सैन्य सहयोग के बिना हि, स्वयं को इंडो-पैसिफिक (हिन्द-प्रशांत) महासागर क्षेत्र में की शक्तिशाली देश के रूप में स्थापित कर रहा है। साथ ही साथ रणनीतिक तौर पर अमेरिका, रूस और चीन से मधुर व्यापारिक और आर्थिक संबंध भी मजबूती के साथ निभा रहा है।