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Saturday, July 5, 2025

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औरंगजेब: क्रूर मुगल तानाशाह जो एक मुकम्मल वारिस के लिए तरसता रहा

मुगलों के इतिहास में औरंगजेब को सबसे क्रूर मुगल शासक नाम जाता है जिसने सत्ता के लिए अपने पिता मुगल शासक शाहजहाँ को आगरा के किले कैद कर दिया था और जहाँ भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर उसकी मौत हो गई थी।

औरंगजेब की क्रूरता की मिसाल उसके अपने भाई-बहनों से किए गए उसके आचरण से मिलती है। यदि संक्षेप में औरंगजेब के व्यक्तित्व और आचरण की बात की जाए तो, स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि, औरंगजेब क्रूर, निर्दयी और मानसिक रोगी शासक था।

औरंगजेब का सफर

औरंगज़ेब छठा मुग़ल शासक था और उसका शासन 1658 से लेकर 1707 में उनकी मृत्यु तक चला। औरंगजेब ने अपने जीवनकाल में, उसने पुरे दक्षिणी भारत में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार करने का भरपूर प्रयास किया पर मराठों की वजह से वह कभी भी पूरे दक्षिण भारत पर राज नही कर सका और उसकी मौत के बाद मुग़ल साम्राज्य का अंत प्रारंभ हो गया था।

औरंगजेब को सबसे विवादास्पद मुग़ल शासक माना जाता है उसने गैर-मुसलमानों के लिए जज़िया कर जैसी भेदभावपूर्ण धार्मिक नीतियां लागू कीं और बड़ी संख्या में हिंदू मंदिरों को नष्ट कर किया। औरंगजेब ने पूरे साम्राज्य पर शरियत आधारित फ़तवा-ए-आलमगीरी लागू किया था

औरंगजेब द्वारा सिखों पर तथा सिख-धर्म के दमन और अत्याचारों की कहानी बहुत लंबी है, उसने सिख धर्म के महान गुरु, ‘गुरु तेग बहादुर’ को भी मार दिया गया था उसके शासन काल में सिख धर्म मानने वालों के कत्ले-आम की दास्तां बहुत लंबी है। औरंगजेब सिख धर्म के अनुनयाइयों पर पहले तो धर्म परिवर्तन के लिए दबाब डालता था और नहीं मानने पर बहुत ही खौफनाक तरीके से मरवा देता था। मुगलों के शासन काल में हजारों सिखों ने धर्म की रक्षा के लिए ह्रदय-विदारक यतनायें झेलीं और जान की कुर्बानियाँ दी।

अफसोस, आज सिख धर्म के कुछ लोग अपने इतिहास को भूल गए है, और राजनैतिक लालसा से वशीभूत होकर, सिख धर्म के गुरुओं और अनुनयाइयों पर मुस्लिम शासकों द्वारा लिए गए अत्याचारों, हत्याओं को भुलाकर आर्थिक और राजनैतिक सुख भोगने की कोशिश कर रहे हैं।

शाहजहाँ और मुमताज़ महल की छठी सन्तान और तीसरे बेटे के रूप मन औरंगज़ेब का जन्म 3 नवम्बर 1618 को दाहोद (गुजरात राज्य) में हुआ था। शाहजहाँ ने 1634 में शहज़ादे औरंगज़ेब को दक्कन का सूबेदार नियुक्त कर दिया था और मुग़ल दरबार का कामकाज अपने बड़े बेटे दारा शिकोह को सौंपने लगा।

औरंगज़ेब ने पहली बार क्रूरता अपने ही भाई से की

1644 में औरंगज़ेब ने 26 वर्ष के उम्र में ही अपने पिता से बगावत की शुरुआत कर दी थी, जिसके चलते उससे राज्य के सारे कम-काज छीन लिए गए थे।

1652 में उसे दक्कन का पुनः  सूबेदार बनाया गया। उसने गोलकोंडा और बीजापुर के मुस्लिम राजाओं के विरुद्ध लड़ाइयाँ लड़ी लेकिन, निर्णायक समय पर मुगल शासक शाहजहाँ ने अपने बेटे और औरंगज़ेब के बड़े भाई दारा शिकोह के कहने पर सेना वापस बुला ली। इससे औरंगज़ेब को बहुत ठेस पहुँची और उसने इसका बदला भाई दारा शिकोह से लेनें की ठान ली।

मुगल शासक शाहजहाँ 1657 में बीमार पड़ गया और उसके तीनों बेटों शिकोह, शाह शुजा और औरंगज़ेब ने उसका अन्त निकट जान कर, आपस में सत्ता को पाने का संघर्ष और मारकाट आरम्भ कर दी। शाह शुजा जिसने स्वयं को बंगाल का राज्यपाल घोषित कर दिया था, अपने बचाव के लिए बर्मा के अरकन क्षेत्र में हिन्दू राजा से शरण लेने पर विवश हो गया।

1658 में औरंगज़ेब ने अपने पिता शाहजहाँ को आगरा किले में कैद कर दिया और स्वयं को शासक घोषित किया। मुगल शासन के शाहजहाँ द्वारा घोषित असली शासक और अपने बड़े भाई दारा शिकोह को षडयंत्र और विश्वासघात के आरोप में सड़कों पर भिकारी की तरह फटे कपड़ों और चीथडों में घुमाया गया, उसका जुलूस एक राज अपराधी की तरह  निकालकर सरेआम उसका सर काटा गया और फिर उसके कटे हुए सर को चौराहों पर, सड़कों पर लटकाया गया, पैरों से ठोकरें मारी गई।

औरंगज़ेब द्वारा अपने भाई को इस तरह  बीभत्स और खौफनाक मौत की सजा देने के बाद 1659 में दिल्ली में राजा का ताज पहनाया गया था। उनके शासन के पहले 10 वर्षों का वर्णन मुहम्मद काज़िम द्वारा लिखित आलमगीरनामा में किया गया है।

अशिक्षित और रूढ़िवादी औरंगजेब

औरंगजेब व्यक्तिगत तौर पर अशिक्षित और रूढ़िवादी था उसको बदलते समय में शासन व्यवस्था के आधुनिक स्वरूप के संबंध में कुछ भी ज्ञान नहीं था। अशिक्षित और सत्ता का भय होने के कारण उसने कभी भी योग्य सलाहकार भी साथ नहीं रखे तथा एक सुरक्षित और रूढ़िवादी विधि या तरीके को शासन करने के लिए चुना जो उसको भयमुक्त होकर सत्ता सुख भोगने में मददगार हो।

औरंगजेब के अशिक्षित और रूढ़िवादी होने के कारण उसने अन्य बहुसंख्यक धर्म के लोगों, विचारकों, शिक्षाविदों को अपने दरबार या राजसभा से दूर ही रखा। योग्य सलाहकारों और समुचित, न्यायपूर्ण और जनता के हितों के शासन व्यवस्था के आभाव में औरंगज़ेब की अनुपस्थिति होते ही अव्यवस्था का फैल जाना।

इस संबंध में एक इतिहासकार अब्राहम इराली ने अपनी किताब ‘द मुग़ल थ्रोन द सागा ऑफ़ इंडियाज़ ग्रेट एम्परर्स’ में लिखा, औरंगज़ेब के शासन में क्षेत्रीय विस्तार ने मुग़ल शक्ति को बढ़ाने के बजाए कमज़ोर कर दिया. उनके शासन में साम्राज्य का फैलाव इतना हो गया कि उस पर शासन करना असंभव हो गया. साम्राज्य अपने ही बोझ के तले दबने लगा. यहाँ तक कि औरंगज़ेब ने ख़ुद कहा, अज़मा-स्त हमाह फ़साद-ए-बाक़ी (यानी मेरे बाद अराजकता).

अत्याचार कर धर्मपरिवर्तन करवाया

औरंगज़ेब ने दिल्ली की गद्दी पर बैठते ही हिंदुओं और सिखों पर भयानक अत्याचार शुरू कर दिए, उन पर जज़िया नाम का कर पुनः से आरम्भ करवाया, जिसे अकबर ने समाप्त कर दिया था।

उसने तलवार के दम पर बहुसंख्यक समाज हिंदुओं का धर्म परिवर्तन और  हिंदुओं पर भी शरिया जैसे कानून और पूरे साम्राज्य में इस्लामी प्रथाओं को फिर से लागू करने की कोशिश भी की, जो पूर्ण नहीं हो सकी। इसके कारण ही उसने हिंदू मंदिरों का विध्वंस करवाया, हिंदुओं पर अनेक तरह के भेदभावपूर्ण कर लगाए और उनका उत्पीड़न किया।

कई जानकारों के अनुसार, औरंगजेब अपने शासन में हिंदू मनसबदारों के साथ पक्षपात पूर्ण व्यवहार करते थे तथा प्रमुख पदों पर मुस्लिम समुदाय के लोगों को रखते थे। यदि कोई हिन्दू सेना मे उच्य पड़ पर है तो उसके समानांतर मुस्लिम पदाधिकारी नियुक्त किया जाता था। इसका उलेख्य इतिहास में कई स्थानों पर मिलता भी है।

ऐसा माना जाता है की आज के मुस्लिम समुदाय में अधिकतर लोग वही है, जिन्होंने औरंगजेब के शासन काल में डर और  प्रलोभन में आकर धर्म परिवर्तन कर लिया था। लेकिन आज उस समुदाय के वही लोग, उनकी ही प्राचीन संस्कृति और धर्म के प्रति वैमनस्य पाल रहे है। द्वेष फैला रहे है, सहिष्णु हिन्दू समुदाय के प्रति हिंसा कर रहे है।

औरंगज़ेब ने इस्लाम धर्म के प्रचार के लिए और धर्म परिवर्तन को प्रोत्साहित करने के लिए कई तरह के प्रयास किए जिसमें, सिक्कों पर कलमा खुदवाना, पारसी, हिन्दू और सिखों के त्योहारों के मनाने पर पाबंदी लगाना, सार्वजनिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों, धार्मिक उत्सव, स्नान पर्व, मेलों, गाना-बजाना आदि पर भी रोक तथा तीर्थ यात्रा पर कर लगाया। औरंगज़ेब ने 1699 ई. में लाखों हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध मंदिरों, धार्मिक स्थलों को तोड़ कर नष्ट करने का आदेश दिया था और उनके स्थान पर मस्जिद का निर्माण करवाया।

औरंगज़ेब के शासन में कृष्ण जी की जन्मभूमि और ब्रज में आने वाले तीर्थ यात्रियों पर भारी धार्मिक कर लगाया गया और हिन्दुओं के ऊपर अत्याचार करके या पैसे का लालच देकर उनको मुसलमान बनाया गया। उस समय के कवियों की रचनाओं में औरंगज़ेब के अत्याचारों का उल्लेख कई जगह मिलता है।

मंदिरों को तोड़कर मस्जिद का निर्माण

इतिहास में उल्लेख किया गया है कि मुगल साम्राज्य में स्थित लाखों हिंदू मंदिरों को औरंगज़ेब या उनके सरदारों द्वारा उनके आदेश पर ध्वस्त कर दिया गया था। जिसमें वाराणसी में स्थित प्रमुख हिंदू मंदिरों में से एक, काशी विश्वनाथ मंदिर को नष्ट करने का आदेश शामिल था।

अब्राहम एराली के अनुसार, “1670 में औरंगज़ेब ने, उज्जैन के आसपास के सभी मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था” और बाद में “300 मंदिरों को चित्तौड़, उदयपुर और जयपुर के आसपास नष्ट कर दिया गया” अन्य हिंदू मंदिरों को भी 1705 के अभियानों में नष्ट कर दिया गया था।

औरंगज़ेब की धर्म परिवर्तन की नीति और गैर-मुस्लिमों पर अत्याचार का विरोध के कारण उसने सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर जी को गिरफ्तार करवा लिया और उनको दिल्ली ले जाया गया, उन्हें औरंगज़ेब ने इस्लाम अपनाने के लिए विवश किया और मना करने पर, उन्हें घोर यातनाएं दी गई तथा नवंबर 1675 में उनका सरेआम सिर कलम कर दिया गया।

दक्षिण भारत में छत्रपति शिवाजी महाराज, छावा संभाजी महाराज और शिवाजी महाराज के राज्य के अन्य मराठा सरदारों से लगातार मिल रही चुनौतियों से परेशान होकर, साल 1680 में औरंगज़ेब पूरे लाव-लश्कर के साथ दक्षिण भारत की ओर कूच कर गया, विशाल फ़ौज, पूरा हरम और एक बेटे को छोड़कर तीनों बेटे उनके साथ गए.

औरंगज़ेब की जीवनी ‘औरंगज़ेब, द मैन एंड द मिथ’ में लेखिका ऑड्री ट्रुश्के लिखती हैं, “शामियानों के साथ बढ़ता लश्कर, बाज़ार, बादशाह का कारवाँ, उनके साथ चलते हुए अफ़सरों और नौकरों का पूरा हुजूम, ये एक देखने लायक दृश्य होता था.”

औरंगज़ेब पुरानी मुग़ल परंपरा को निभा रहा था, जिसके अनुसार राजधानी हमेशा बादशाह के साथ चलती थी लेकिन औरंगज़ेब दूसरे मुग़ल बादशाहों से इस मामले में बदनसीब था कि एक बार दक्षिण भारत जाने के बाद वो दोबारा दिल्ली कभी नहीं लौट सका।

औरंगज़ेब के जाने के बाद दिल्ली उजाड़ और वीरान हो गई थी, लाल क़िले की दीवारों पर धूल की मोटी परत जम गई.

बुढ़ापे में अकेलेपन के शिकार

औरंगज़ेब ने अपनी ज़िंदगी के अंतिम तीन दशक दक्षिण भारत में बिताए और ज़्यादातर लड़ाइयों और घेराबंदियों का ख़ुद ही नेतृत्व किया.

औरंगज़ेब की सेना के एक हिंदू सिपाही भीमसेन सक्सेना ने फ़ारसी में अपनी आत्मकथा ‘तारीख़-ए-दिलकुशा’ में लिखा, “मैंने इस दुनिया के लोगों को बहुत लालची पाया है.इस हद तक कि औरंगज़ेब आलमगीर जैसा बादशाह जिसके पास किसी चीज़ की कमी नहीं है, क़िलों को जीतने के लिए लाला यित था. कुछ पत्थरों पर अधिकार जमाने की उसकी चाहत इतनी बड़ी थी कि वो इसके लिए ख़ुद भागदौड़ कर रहा था.”

औरंगज़ेब के जीवन का आख़िरी चरण उनके लिए बदनसीबी भरा रहा और उनको अहसास हो गया था कि उनकी भारत पर मज़बूती से शासन करने की इच्छा धूल में मिल चुकी है।

औरंगज़ेब अपने बुढ़ापे में अकेलेपन का भी शिकार हो गया था। एक-एक करके उनके सभी नज़दीकी इस दुनिया से चल बसे थे. उनकी जवानी के एक साथी सिफ़ उनके वज़ीर असद ख़ाँ ही जीवित थे. जब वो अपने दरबार में नज़र दौड़ता था तो उसे हर तरफ़ डरपोक, जलनख़ोर और चापलूस दरबारी ही पड़ते थे।

वारिस बनने की क्षमता नहीं थी

औरंगज़ेब की मौत के समय उसके पाँच में से तीन पुत्र मात्र जीवित थे. इससे पहले उसके दो पुत्रों की मृत्यु हो चुकी थी. इनमें से किसी में भी भारत का बादशाह बनने का न तो बूता था और न ही क्षमता थी।

18वीं सदी के शुरू में लिखे एक पत्र में औरंगज़ेब ने अपने दूसरे बेटे मुअज़्ज़म को कंदहार (कंधार, अफगानिस्तान) न जीत पाने के लिए आड़े हाथों लिया था. औरंगज़ेब का यह पत्र ‘रूकायते आलमगीरी’ में संकलित है, इसमें उसने लिखा था, ‘एक नालायक बेटे से बेहतर है एक बेटी होना.’

औरंगज़ेब ने अपने पत्र के अंत में अपने बेटे को लताड़ते हुए लिखा था, “तुम इस दुनिया में अपने प्रतिद्वंदियों और ख़ुदा को किस तरह अपना मुँह दिखाओगे?”

औरंगज़ेब को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि उसके बेटों में उसका वारिस बनने की क्षमता के न होने के लिए वो ख़ुद ज़िम्मेदार था।

इतिहासकार मूनिस फ़ारूकी ने अपनी किताब ‘द प्रिंसेज़ ऑफ़ द मुग़ल एम्पायर’ में लिखा है कि औरंगज़ेब ने शहज़ादों की निजी ज़िंदगी में दख़ल देकर उनकी स्वायत्तता को कमज़ोर किया था.

बेटों में वारिस बनने की क्षमता नहीं होने के दुख में, सन 1700 आते-आते औरंगज़ेब शासन के काम में अपने पोतों को अपने बेटों से ज्यादा तरजीह देने लगा था. इससे उसके बेटों की स्थिति और कमज़ोर होती गई। औरंगज़ेब कभी-कभी तो अपने दरबारियों को अपने बेटों से ज़्यादा महत्व देता था और इसका सबसे बड़ा उदाहरण था जब उनके मुख्य वज़ीर असद ख़ाँ और सैनिक कमांडर ज़ुल्फ़िकार ख़ाँ ने औरंगज़ेब के सबसे छोटे बेटे कामबख़्श को गिरफ़्तार किया था। क्योंकि

कामबख़्श ने औरंगज़ेब की अनुमति के बिना मराठा राजा और शिवाजी के बेटे तथा संभाजी के सौतेले भाई, राजाराम से संपर्क स्थापित करने की कोशिश की थी।

सबसे नज़दीकी लोगों का निधन

अत्याचारी औरंगज़ेब पर बुढ़ापा हावी हो रहा था और उसकी निजी ज़िंदगी भी दिन प्रति दिन अंधकारमय होती जा रही थी।  उसकी बहू जहानज़ेब बानो का मार्च, 1705 में गुजरात में निधन हो गया था. उनके विद्रोही बेटे अकबर (द्वितीय) की भी साल  1704 में ईरान में मौत हो गई थी.

इससे पहले साल 1702 में उनकी कवयित्री बेटी ज़ेब-उन-निसां भी चल बसी थीं. इसके बाद औरंगज़ेब के भाई बहनों में अकेली ज़िंदा बची गौहर-आरा की मौत हो गई थी और औरंगज़ेब को इसका बहुत सदमा लगा था मौत पर उसने कहा था कि, ‘शाहजहाँ के बच्चों में सिर्फ़ वो और मैं ही जीवित बचे थे’.

क्रूर शासक औरंगज़ेब के दुखों का यहीं अंत नहीं हुआ. साल 1706 में ही उनकी बेटी मेहर-उन-निसां और दामाद इज़ीद बख़्श की भी दिल्ली में मौत हो गई.

औरंगज़ेब की मृत्यु से कुछ पहले उनके पोते बुलंद अख़्तर ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया था. उसके दो और पोतों की भी मौत हुई थी लेकिन, दरबारियों ने ये ख़बर यह सोचकर उसको नहीं दी कि इससे, औरंगज़ेब को बहुत धक्का पहुंचेगा.

दक्षिण भारत में सूखा और महामारी

औरंगज़ेब के ज़माने में भारत आए इटालियन यात्री निकोलाव मनुची ने अपनी किताब ‘स्टोरिया दो मोगोर’ में लिखा, “दक्षिण में 1702 से 1704 के बीच बिल्कुल बारिश नहीं हुई. ऊपर से प्लेग की महामारी भी फैल गई. दो सालों में करीब 20 लाख लोगों की मौत हो गई. भुखमरी से परेशान लोग एक चौथाई रुपये के बदले अपने बच्चे तक बेचने के लिए तैयार हो गए. लेकिन उनका भी कोई खरीदार नहीं था.”

“आम लोगों को मरने के बाद मवेशियों की तरह दफ़नाया जाता. दफ़नाने से पहले ये देखने के लिए उनके कपड़ों की तलाशी ली जाती कि उनमें कुछ पैसे तो नहीं हैं. फिर उनके पैरों में रस्सी बाँध कर लाश को खींचा जाता और किसी भी सामने पड़ने वाले गड्ढे में दफ़ना दिया जाता.”

मनुची ने लिखा, “कई बार उससे फैली दुर्गंध से मुझे उल्टी आती. चारों तरफ़ इतनी मक्खियाँ होतीं कि खाना खाना भी नामुमकिन हो जाता.”

मनुची के शब्दों में, “वो अपने पीछे पेड़ और फसल-रहित खेत छोड़ गए. उनकी जगह आदमियों और मवेशियों की हड्डियों ने ले ली. सारे इलाके की आबादी इतनी कम हो गई कि तीन या चार दिन के सफ़र में कहीं भी आग या रोशनी जलती नहीं दिखाई देती थी.”

दक्षिण में उस दौरान पड़े सूखे और महामारी जैसे इन सब प्राकृतिक घटनाओं ने भी औरंगज़ेब की मुसीबतें बढ़ा दी थीं.

उदयपुरी अंत तक औरंगज़ेब के साथ रहीं

औरंगज़ेब को अपने अत्याचारी शासन के खात्मे के आख़िरी दिनों में, सबसे छोटे बेटे कामबख़्श की माँ उदयपुरी का साथ बहुत पसंद था. अपनी मृत्युशैया पर मौत से जूझते हुए उसने कामबख़्श को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा था कि उनकी बीमारी में उदयपुरी ने उनका साथ नहीं छोड़ा है, और मौत होने पर भी वो उसके साथ जाएंगी। किस्मत से हुआ भी कुछ ऐसा ही कि, औरंगज़ेब की मौत  के कुछ महीनों के अंदर उदयपुरी ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

उत्तर भारत में विद्रोह के स्वर

स्टेनली लेन-पूल ने अपनी किताब ‘औरंगज़ेब एंड द डिके ऑफ़ द मुग़ल एम्पायर’ में लिखा, “औरंगज़ेब की लंबी अनुपस्थिति ने उत्तर भारत में अव्यवस्था फैला दी. राजपूत खुले विद्रोह पर उतर आए, आगरा के पास जाट अपना सिर उठाने लगे और मुल्तान के आसपास सिख भी मुग़ल साम्राज्य को चुनौती देने लगे. मुग़ल सेना अपने-आप को हतोत्साहित महसूस करने लगी. मराठों में भी मुग़ल सेना पर छिप-छिप कर वार करने की हिम्मत आ गई.”

औरंगज़ेब ने अपने सभी बेटों को इस डर से दूर भेज दिया कि कहीं वो उसका वही हश्र न करें जो उसने अपने पिता शाहजहाँ का किया था।

औरंगज़ेब की बीमारी

बूढ़े हो चुके औरंगज़ेब के सामने सबसे बड़ा प्रश्न था उसके उत्तराधिकारी का, उसके पुत्र और पोते सभी निकम्मे और कमजोर थे, किसी में भी दिल्ली की गद्दी संभालने की क्षमता नहीं थी।

मनुची ने लिखा, “गद्दी के दावेदारों में बादशाह के बेटे थे जो ख़ुद बुज़ुर्ग हो चले थे. फिर उसके बाद उसके पोतों का नंबर आता था जिनकी भी दाढ़ी सफ़ेद हो चली थी और उन्होंने 45 की उम्र पार कर ली थी. दावेदारों में औरंगज़ेब के परपोते भी थे जिनकी उम्र 25 या 27 साल रही होगी. इनमें से सिर्फ़ एक ही औरंगज़ेब का उत्तराधिकारी हो सकता था. सत्ता के संघर्ष में बाकी लोगों को या तो अपने हाथ-पैर कटवाने होते या अपनी ज़िंदगी से हाथ धोना पड़ता.”

साल 1705 में औरंगज़ेब ने कृष्णा नदी के पास एक गाँव में अपना शिविर लगाया ताकि उनके सैनिकों को कुछ आराम मिल सके. लेकिन यहीं पर औरंगज़ेब बीमार पड़ गया। इसके बाद उसने दिल्ली जाने के इरादे से अहमदनगर की तरफ़ कूच किया लेकिन ये उनका आख़िरी पड़ाव साबित हुआ।

14 जनवरी, 1707 को 89 वर्ष की उम्र में औरंगज़ेब एक बार फिर बीमार पड़ गया  लेकिन कुछ ही दिनों में उनकी तबीयत संभल गई और वो फिर से अपना दरबार लगाने लगा. परन्तु  इस बार उसे अंदाज़ा हो गया कि अब उनके पास बहुत अधिक समय नहीं बचा है. उसके बेटे आज़म की मुगल बादशाह की गद्दी पर बैठने की बढ़ती अधीरता औरंगज़ेब को परेशान कर रही थी की कहीं उसके साथ भी वही सलूक न किया जाए जो उसने अपने पिता के साथ किया था।

औरंगज़ेब ने मौत से पहले बेटों को लिखी चिट्ठी

इतिहासकार जदुनाथ सरकार लिखते हैं, औरंगज़ेब ने आज़म को मालवा का गवर्नर बनाकर भेज दिया. लेकिन चालाक शहज़ादे ने ये जानते हुए कि उसके पिता का अंत निकट है जाने में बहुत जल्दबाज़ी नहीं दिखाई और कई जगहों पर रुकता हुआ आगे बढ़ा. अपने बेटे को भेजने के चार दिन बाद बादशाह को तेज़ बुख़ार चढ़ा लेकिन उसके बावजूद वो दरबार में आया।

अपने आख़िरी समय में औरंगज़ेब ने अपने बेटों को दो पत्र लिखे, जिसमें उसने लिखा, “मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों में सत्ता के लिए लड़ाई न हो. लेकिन फिर भी मैं देख पा रहा हूँ कि मेरे जाने के बाद काफ़ी ख़ून-ख़राबा होगा. मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वो तुममें अपनी प्रजा के लिए काम करने की इच्छा पैदा करे और शासन करने की क्षमता पैदा करे.”

इतिहासकार लिखते हैं कि, 3 मार्च, 1707 को औरंगज़ेब अपने शयनकक्ष से बाहर निकल और उसने सुबह की नमाज़ भी पढ़ी और अपनी तसबीह के दाने गिनने लगा लेकिन धीरे-धीरे उसपर पर बेहोशी छाने लगी और उनको साँस लेना दूभर होने लगा और उसकी मौत हो गई।

औरंगज़ेब ने मरने से पहले अपनी वसीयत की थी कि, उनके शव को नज़दीक की किसी जगह पर बिना किसी ताबूत के दफ़नाया जाए.

औरंगज़ेब की मौत के दो दिन बाद उनका बेटा आज़म वहाँ पहुंचा. शोक मनाने और अपनी बहन ज़ीनत-उन-निसां बेगम को दिलासा देने के बाद वो अपने पिता औरंगज़ेब के शव को दौलताबाद के पास ख़ुल्दाबाद में सूफ़ी संत शेख़ ज़ैन-उद-दीन की क़ब्र के बग़ल में दफ़नाया के लिए ले गया।

औरंगज़ेब 89 वर्ष की आयु तक जीवित रहा, लेकिन जिस तरह उसका क्रूर और अत्याचारी आचरण रहा, जीवन भर वह इसका प्रतिफल भोगता रहा।

औरंगज़ेब ने अपने पिता को अकेलेपन और भूख से तड़पा कर मारा और भाइयों को उसने खुद ही मौत के घाट उतार दिया था, अयोग्य पुत्र और पुत्रियाँ अपने आप ही समय से पहले काल के गाल मे समा गए। उसके जींद रहते हुए उसके पुत्र, और पोतों की असमय मौत हो गई , सगे संबंधी, मित्र सभी दुनिया छोड़ कर चले गए। औरंगज़ेब को अंतिम समय में  सुनाई और दिखाई भी नहीं देता था। उसका दाहिने पैर चलने-फिरने के काबिल नहीं रहा था जिसकी वजह वह लंगड़ाकर चलता था।

औरंगज़ेब के बेटों भी में जंग

हालांकि औरंगज़ेब ने शाह आलम यानी मुअज़्ज़म को अपना उत्तराधिकारी बनाया था जो उस समय पंजाब का गवर्नर था लेकिन आज़म शाह औरंगज़ेब की मौत के तुरंत बाद वहाँ पहुंच गया, उसने अपने-आप को बादशाह घोषित कर दिया.

उसने फिर आगरा कूच किया ताकि उसकी बादशाहत को विधिवत मान्यता मिल सके.

मनुची लिखते हैं, “उधर शाह आलम ने भी अपने पिता के निधन का समाचार सुन आगरा की तरफ़ कूच किया. वो अपने भाई आज़म से पहले आगरा पहुंच गया जहाँ के लोगों ने उसका ज़ोरदार स्वागत किया.

जाजऊ में दोनों भाइयों की सेनाओं के बीच भिड़ंत हुई. इसी जगह पर सालों पहले औरंगज़ेब और उसके भाई दारा शिकोह के बीच युद्ध हुआ था. इस लड़ाई में शाह आलम की जीत हुई और अगले दिन 20 जून को उसने अपने पिता की गद्दी सँभाली.”

मुग़ल साम्राज्य का पतन

हारे हुए आज़म शाह ने अपने भाई शाह आलम के हाथ आने से पहले एक कटार से आत्महत्या कर ली.

शाह आलम की भी औरंगज़ेब की मौत के पाँच साल बाद सन 1712 में मौत हो गई.

सन 1712 से 1719 के सात सालों के बीच एक के बाद एक चार मुग़ल बादशाह भारत की गद्दी पर बैठे, जबकि पिछले 150 सालों में सिर्फ़ 4 मुग़ल बादशाहों ने भारत पर राज किया था। और धीरे-धीरे मुग़ल वंश का पुराना रुतबा जाता रहा.

इतिहासकार लिखते हैं, अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद औरंगज़ेब राजनीतिक रूप से नाकाम बादशाह था. उसके बाद मुग़ल साम्राज्य के पतन का कारण सिर्फ़ उसकी निजी शख़्सियत नहीं थी. ये कहना भी शायद उचित नहीं है कि सिर्फ़ उसके कारण मुग़लों का पतन हुआ लेकिन ये भी सही है कि उसने उस पतन को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया.

1707 में औरंगज़ेब की मौत के बाद से मुगल साम्राज्य अपने पुराने दौर के सपनों में ही जीता रहा और तकरीबन 150 साल तक किसी तरह चलने के बाद 1857 में बहादुर शाह ज़फ़र के साथ उसका अंत हो गया.

 

कमलेश पाण्डेय
अनौपचारिक एवं औपचारिक लेखन के क्षेत्र में सक्रिय, तथा समसामयिक पहलुओं, पर्यावरण, भारतीयता, धार्मिकता, यात्रा और सामाजिक जीवन तथा समस्त जीव-जंतुओं पर अपने विचार व्यक्त करना।

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