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Friday, July 4, 2025

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गुरुदत्त: घर ना होने की तकलीफ़ से, घर होने की तकलीफ़ और भयंकर होती है

हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता,निर्देशक एवं फ़िल्म निर्माता गुरुदत्त का असली नाम वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे था। गुरुदत्त ने 1950 और 1960 के दशक में कई उत्कृष्ट और विश्व प्रसिद्ध फ़िल्में बनाईं जिनमें ‘प्यासा’, ‘कागज़ के फूल’, ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’ तथा ‘चौदहवीं का चाँद’ शामिल हैं।

विशेष रूप से, ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ को टाइम पत्रिका के 100 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की सूचि में शामिल किया गया है। साइट एन्ड साउंड आलोचकों और निर्देशकों के सर्वेक्षण में गुरुदत्त का नाम दुनिया के सबसे बड़े फ़िल्म निर्देशकों की सूचि में शामिल हैं। गुरुदत्त को भारत का ‘ऑर्सन वेल्स (Orson Welles) भी कहा जाता है। 2010 में, उनका नाम सीएनएन के “सर्व श्रेष्ठ 25 एशियाई अभिनेताओं” के सूचि में भी शामिल किया गया था।

गुरुदत्त कलात्मक फ़िल्मों के व्यावसायिक चलन को विकसित करने के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी फ़िल्मों को विदेशों में जैसे, जर्मनी, फ्रांस और जापान में भी सराहा जाता रहा है।

गुरुदत्त का प्रारम्भिक जीवन

गुरु दत्त का जन्म 9 जुलाई 1925 को बंगलौर में शिवशंकर राव पादुकोणे व वसन्ती पादुकोणे के यहाँ हुआ था। गुरु दत्त ने अपने बचपन के प्रारम्भिक दिन कलकत्ता के भवानीपुर इलाके में गुजारे जिसका उन पर बौधिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा। गुरुदत्त के जीवन पर बंगाली संस्कृति की इतनी गहरी छाप पड़ी कि उन्होंने अपने बचपन का नाम वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे से बदलकर गुरु दत्त रख लिया था।

गुरुदत्त ने कलकत्ता में लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी की लेकिन जल्द ही वे वहाँ से इस्तीफा देकर 1944 में बम्बई चले गए। और वहाँ उनके चाचा ने उन्हें पूना (Pune) तीन साल के अनुबन्ध पर फ़िल्म में काम करने भेज दिया। वहीं पर सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता वी० शान्ताराम का कला मन्दिर के नाम से अपना स्टूडियो भी था। यहीं रहते हुए गुरुदत्त की मुलाकात फ़िल्म अभिनेता रहमान और देव आनन्द से हुई जो आगे जाकर उनके बहुत अच्छे मित्र बने।

पूना (Pune) में  साल 1944 में गुरुदत्त को सबसे पहले ‘चाँद’ नामक फ़िल्म में श्रीकृष्ण की एक छोटी सी भूमिका मिली थी और कुछ समय बाद 1945 में वह अभिनय के साथ ही फ़िल्म निर्देशक विश्राम बेडेकर के सहायक का काम भी देखने लगे थे। 1946 में उन्होंने एक अन्य सहायक निर्देशक पी० एल० संतोषी की फ़िल्म ‘हम एक हैं’ के लिये नृत्य निर्देशन का काम भी किया था।

कला की प्रारम्भिक प्रेरणा का स्रोत

गुरुदत्त की दादी नित्य शाम को दिया जलाकर आरती करतीं और तब चौदह वर्षीय गुरुदत्त दिये की रौशनी में दीवार पर अपनी उँगलियों की विभिन्न मुद्राओं से तरह तरह के चित्र बनाते रहते। यहीं से उनके मन में कला के प्रति संस्कार जागृत हुए। 16 वर्ष की उम्र में साल 1941 में, 75 रुपये वार्षिक छात्रवृत्ति पर पाँच साल के लिये अल्मोड़ा जाकर नृत्य, नाटक व संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की। लेकिन, 1944 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जब ‘उदय शंकर इण्डिया कल्चर सेंटर’ बन्द हो गया तब गुरुदत्त वापस घर लौट आये थे।

यद्यपि आर्थिक कठिनाइयों के कारण वे स्कूल जाकर अध्ययन तो न कर सके परन्तु रवि शंकर के अग्रज उदय शंकर की संगत में रहकर उन्होंने कला व संगीत के कई गुण अवश्य सीख लिये। यही गुण आगे चलकर कलात्मक फ़िल्मों के निर्माण में उनके लिये सहायक सिद्ध हुए।

संघर्ष के दिनों में प्रसिद्ध फिल्म की पटकथा

गुरुदत्त का यह अनुबन्ध 1947 में खत्म हो गया। उसके बाद उनकी माँ ने फिर से उनको प्रभात फ़िल्म कम्पनी व स्टूडियो में एक सहायक के रूप में नौकरी दिलवा दी थी। लेकिन वह नौकरी जल्द ही छूट गयी, लगभग दस महीने तक बेरोजगारी की हालत में माटुंगा बम्बई में अपने परिवार के साथ रहते हुए, उन्होंने अंग्रेजी में लिखने की क्षमता विकसित की और ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डिया’ नामक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के लिये लघु कथाएँ लिखने लगे।

संघर्ष के इसी समय में उन्होंने लगभग आत्मकथात्मक शैली में प्यासा फ़िल्म की पटकथा लिखी थी। मूल रूप से यह पटकथा कश्मकश के नाम से लिखी गयी थी जिसका हिन्दी में अर्थ संघर्ष होता है। बाद में इसी पटकथा को उन्होंने प्यासा के नाम में बदल दिया। यह पटकथा उन्होंने माटुंगा में अपने घर पर रहते हुए लिखी थी।

इन्ही संघर्ष के दिनों में गुरुदत्त ने दो बार शादी भी की, पहली बार विजया नाम की एक लड़की से, जिसे वे पुणे में मिले थे और मुंबई भी साथ लेकर आ गए थे। लेकिन संघर्ष की मार से संबंध टूट गए और वह अलग-अलग हो गए थे, उसके बाद दूसरी बार शादी उन्होंने अपने माता पिता के कहने पर हैदराबाद की रहने वाली एक रिश्तेदार सुवर्णा से की थी।

कोरियोग्राफर से अभिनेता निर्देशक

गुरुदत्त को प्रभात फ़िल्म कम्पनी ने बतौर कोरियोग्राफर काम पर रखा था लेकिन जल्द ही उन पर एक अभिनेता के रूप में काम करने का दवाव डाला जाने लगा और केवल यही नहीं, एक सहायक निर्देशक के रूप में भी उनसे काम लिया जाने लगा।

प्रभात फ़िल्म कम्पनी के 1947 में घाटे में आ जाने के बाद गुरुदत्त बम्बई आ गये। और वहाँ उन्होंने अमिय चक्रवर्ती की फ़िल्म ‘गर्ल्स स्कूल’ में और ज्ञान मुखर्जी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म ‘संग्राम’ में काम किया। उनके दोस्त देव आनन्द ने उन्हें एक निर्देशक के रूप में अपनी कंपनी नवकेतन में अवसर दिया और यहीं गुरुदत्त के पहली फिल्म बाज़ी’ निर्देशित की जो 1951 में प्रदर्शित हुई।

मुंबई के पाली हिल का बंगला नंबर 48

फ़िल्में बनाने वाले पर्दे पर सपने गढ़ते हैं मगर अक्सर ख़ुद उनका सपना एक घर का ही होता है. और उनकी तमन्ना होती है, ‘एक बंगला बने न्यारा सा.’

ऐसा ही है मुंबई के पाली हिल का बंगला नंबर 48 जिन लोगों ने इसको देखा वो उसकी भव्यता कभी भूल नहीं पाए. वो महान फ़िल्मकार गुरुदत्त के सपनों का घर था. गुरु और गीता दत्त का आलीशान, ऐशो-आराम वाला बंगला नंबर 48.

लेकिन ये बंगला ‘घर’ न बन सका. और फिर, जितनी शिद्दत से गुरुदत्त ने ये बंगला बनवाया था, उतने ही जुनून से एक दोपहर इसका विध्वंस भी कर दिया था. गुरुदत्त के इस बंगले की कहानी गुरुदत्त के जीवन की भी दास्तान है.

साल 1950 के दशक में मुंबई के बांद्रा (पश्चिम) में पाली हिल एक घने पेड़ों वाला इलाक़ा हुआ करता था। ढलवां पहाड़ी पर स्थित होने की वजह से ही इसका नाम पाली हिल पड़ा था. उस दौर के पाली हिल में ज़्यादातर लोग कॉटेज या बंगलों में रहते थे।

निर्माण के शुरुआत में बंगलों के मालिक ब्रिटिश, पारसी और कैथोलिक लोग थे. बाद में दिलीप कुमार, देव आनंद और मीना कुमारी जैसे हिन्दी फ़िल्म स्टार्स ने वहां रहना शुरू किया था। और वक्त के साथ साथ पाली हिल एक प्रभावशाली और महंगे इलाक़े के रूप में विकसित हो गया।

देव आनंद का घर गुरुदत्त का सपना

उस समय घर के बारे में सोचना तक गुरुदत्त के लिए दूर का सपना लगता था. कलकत्ता, अल्मोड़ा और पूना में शुरुआती जीवन के साल बिताने बाद क़िस्मत उन्हें खींच कर मुंबई ले आई थी. यहां गुरुदत्त की मुलाकात हुई अपने दोस्त एक्टर देव आनंद से. उनकी दोस्ती कुछ साल पहले पूना के प्रभात स्टूडियोज़ में हुई थी जब देव भी फिल्मों में काम करने के लिए स्ट्रगल कर रहे थे.

देव आनंद ने अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ में लिखा, ”हमने एक दूसरे से वादा किया था कि जिस दिन मैं प्रोड्यूसर बनूंगा, मैं गुरु को बतौर डायरेक्टर लूंगा और जिस दिन वो किसी फ़िल्म का डायरेक्शन करेंगे वो मुझे हीरो कास्ट करेंगे.”

देव आनंद को अपना वादा याद रहा. गुरुदत्त पर दांव लगाकर उन्होंने अपनी फ़िल्म ‘बाज़ी’ का निर्देशन उन्हें दिया. ये गुरु की पहली फ़िल्म थी.

फ़िल्मस्टार देव आनंद का खूबसूरत घर पाली हिल में था. फ़िल्म बनने के दौरान गुरुदत्त अक्सर देव के पाली हिल बंगले में आने जाने लगे.

गुरुदत्त पर अपनी किताब ‘गुरुदत्त एन अनफिनिश्ड स्टोरी’ की रिसर्च के समय, गुरुदत्त की बहन और मशहूर आर्टिस्ट ललिता लाजमी ने मुझे बताया था, ”वो देव आनंद के बंगले की बार-बार बेहद तारीफ़ करते. हम बैठ कर उनकी बातें बड़े चाव से सुनते. वो कहते थे घर तो ऐसा ही होना चाहिए. अपना घर होने की ललक हम सबके अंदर थी क्योंकि घर कभी था ही नहीं.”

देव आनंद के घर आने-जाने के दौरान ही गुरु ने दिल में ये हसरत पाल ली थी कि अगर ज़िंदगी ने मौक़ा दिया तो वो पाली हिल में ही अपना बंगला बनवाएंगे. वो उनके सपनों का घर होगा.

मैं तुम्हारे भाई से शादी करने जा रही हूं

इस फ़िल्म ने जेहन में बंगले की हसरत दी और इसी फ़िल्म ‘बाज़ी’ के निर्माण के दौरान दिल में प्यार ने भी दस्तक दी.

स्ट्रगलिंग निर्देशक गुरुदत्त और उस ज़माने की स्टार प्लेबैक सिंगर गीता रॉय को एक दूसरे से प्यार हो गया था. गुरुदत्त का परिवार भी गीता पर जान छिड़कता था.

गुरुदत्त की बहन ललिता लाजमी ने मुझे बताया, ”गीता स्टार थीं. लेकिन सादगी पसंद थीं. हमारी दोस्ती हो गयी थी. वो मेरे बहुत करीब थीं. वो अपने परिवार के साथ एक बंगले में रहती थीं जिसका नाम ‘अमिया कुटीर’ था. मुझे याद है एक रात अपने बंगले की बालकनी में खड़े होकर गीता ने मुझे बताया था, ‘मैं तुम्हारे भाई से शादी करने जा रही हूं. हम मिलकर अपना घर बनाएंगे.”

26 मई 1953 को गुरुदत्त और गीता रॉय की शादी हुई थी। शादी के समय गीता रॉय, गुरुदत्त से ज़्यादा लोकप्रिय स्टार थीं।

प्यार में डूबीं स्टार सिंगर गीता रॉय ने अपना नाम बदलकर गीता दत्त (गीतादत्त) कर लिया था. हालांकि जैसे-जैसे ज़िंदगी आगे बढ़ी उन्हें अहसास होने लगा था कि बदलाव महज़ उनके नाम में ही नहीं हुआ था. उनके जीवन में बहुत कुछ बदल चुका था.

गुरुदत्त चाहते था कि गीतादत्त अब सिर्फ़ उनकी फिल्मों में ही गाएं. इस बीच गुरुदत्त का करियर भी बेहद तेज़ी से ऊपर गया.

फिल्म ‘आर पार’, ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ और फिर ‘प्यासा’ की कामयाबी से कुछ ही साल में उनकी गिनती हिंदी सिनेमा के कामयाब फ़िल्मकारों में होने लगी.

जबकि गीतादत्त का करियर शादी के बाद थम सा गया था. ललिता लाजमी ने कहा था कि गीता करियर पर ज़्यादा ध्यान देना चाहती थीं मगर गुरु चाहते थे कि वो घर-परिवार-बच्चों का ध्यान रखें और गीत सिर्फ़ उनकी फ़िल्मों में ही गाएं.

गीता को ये बात चुभती थी. दोनों में इस बात पर झगड़े होते रहे लेकिन शुरुआत में दोनों उसे सुलझा भी लेते थे.

जब ख़्वाब हक़ीक़त बन गया

फिर एक दिन गुरुदत्त ने अख़बार में विज्ञापन देखा कि पाली हिल में एक पुराना बंगला बिकाऊ है.

उन्होंने इसे एक लाख रुपए में खरीद लिया जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी. बंगला नंबर 48, पाली हिल: गुरुदत्त के ख़्वाब का ऐड्रेस था जो अब हक़ीक़त बन गया था.

ये बंगला क़रीब तीन बीघा ज़मीन में फैला हुआ था. घने पेड़ों और बग़ीचों से घिरा हुआ था.

देव आनंद के बंगले से भी बड़ा. गुरु और गीता ने इसे घर बनाने के लिए काफ़ी समय और धन खर्च किया. कश्मीर से लकड़ी मंगवाई गयी, लंदन से कालीन और बाथरूम के लिए खालिस इटैलियन संगमरमर.

गुरुदत्त की मां वासंती ने अपनी किताब ‘माई सन गुरुदत्त’ में लिखा था, ”पाली हिल के बंगले को बड़े बग़ीचे और सामने लॉन के साथ सुंदर मकान का रूप दिया गया. सीढ़ियों से पश्चिम की तरफ से समंदर और सूर्यास्त नज़र आता था. उसने तमाम तरह के कुत्ते, सुंदर चिड़िया, एक स्यामी बिल्ली और एक बंदर भी खरीदा था. वो एक मुर्गी फार्म भी शुरू करना चाहता था.”

दूसरे बेटे अरुण के जन्म के बाद गुरुदत्त और उनका परिवार अपने खार वाले फ्लैट से पाली हिल के बंगला नंबर 48 आ गया था.

खुशियों से भरे इस परिवार में गुरु-गीता के पास दो बच्चे थे, कामयाबी और सुखी जीवन की तमन्ना थी.

शुरुआती वर्षों में ये बंगला सैकड़ों कहानियों, फिल्मों पर चर्चा, पार्टियों और संगीतमय शामों का गवाह बना. लेकिन इन वर्षों में गुरु और गीता के बीच के समीकरण काफ़ी बदल चुके थे.

अब गुरुदत्त स्टार थे और गीता पिछड़ गई थीं

गुरुदत्त अब स्टार निर्देशक थे जबकि इन चंद वर्षों में गीता का स्टारडम तेज़ी से नीचे आया था.

इसी दौर में लता मंगेशकर और आशा भोंसले तेज़ी से प्लेबैक सिंगिंग में ऊपर आयी थीं. गीता इस रेस में पिछड़ गई थीं और उन्हें महसूस होने लगा था मानो वो गुज़रे ज़माने की सिंगर हो चुकी हैं.

वहीं गुरुदत्त काम में डूबे रहते थे. अब उनका ख़ुद का स्टूडियो था और जहाँ वह लगातार फ़िल्मों का निर्माण करना चाह रहे थे। अब, गुरुदत्त के पास गीता और परिवार के लिए ज़्यादा समय नहीं था। अभिनेत्रियों के साथ उनके संबंधों की चर्चा भी फिल्मी गलियारों में खूब होने लगी थीं।

एक किताब ‘गुरुदत्त अ अनफिनिश्ड स्टोरी’ में ललिता लाजमी ने बताया था, ”गीता शक्की स्वभाव की थीं और बेहद पज़ेसिव भी. एक फिल्मकार या अभिनेता कई अभिनेत्रियों के साथ काम करता है लेकिन गीता के लिए ये स्वीकार करना मुश्किल हो रहा था.”

दोनों के बीच झगड़े बढ़ते ही गए, अकेलेपन और स्टारडम खोने के अहसास ने गीता को घेर लिया था. निजी और प्रोफेशनल कुंठाओं से निपटने में नाकाम होकर गीतादत्त ने शराब में शांति तलाश ली.

गुरुदत्त की मां वासंती ने अपनी किताब ‘माई सन गुरुदत्त’ में लिखा, ”घर तो बना लिया मगर गुरुदत्त व्यस्त होने के कारण अपने ख़ुद के घर पर ध्यान नहीं दे सका.”

बंबई के प्रमुख रियल एस्टेट में सबसे खूबसूरत बंगलों में से एक इस घर में अब उन्हें नींद तक नहीं आती थी.

गुरुदत्त के मित्र लेखक बिमल मित्र की किताब ‘बिनिद्र’ में दर्ज है कि गुरुदत्त ने एक बार उनसे कहा था, ”मैं हमेशा अपने मकान में खुश रहना चाहता था. मेरा मकान पाली हिल कि सभी इमारतों में सबसे ज़्यादा सुंदर है. उस मकान में बैठकर लगता ही नहीं कि आप बंबई में हैं. वो बग़ीचा, वो माहौल और कहां मिलेगा मुझे? इसके बावजूद, मैं उसमें ज़्यादा समय तक नहीं रुक पाता.”

अक्सर सुबह-सुबह, नींद भरी आंखों के साथ वो अपने स्टूडियो पहुंच जाते. यहां एक छोटे से कमरे में वो चुपचाप लेट जाते और यहीं उन्हें नींद आ पाती थी.

कभी सुकून की तलाश में वो बंबई से भागकर लोनावला में अपने फार्महाउस चले जाते और कई दिन वहां खेती करते.

बंगले में भूत रहता है!

गुरु और गीता के रिश्ते में दूरियां बढ़ती रहीं. आपसी रिश्ते को सुधारने के लिए बतौर हीरोइन गीता को लेकर निर्देशक गुरुदत्त ने एक बड़ी फ़िल्म ‘गौरी’ की शुरुआत की.

लेकिन शूटिंग के दौरान ही दोनों के बीच झगड़ा इतना बढ़ा कि ‘गौरी’ को शुरुआती शूटिंग के बाद गुरुदत्त ने रद्द कर दिया. ये दोनों के रिश्ते में बड़ा झटका था. तनाव में गीता लगातार अंधविश्वासी होती गयीं. अपने ख़राब होते रिश्ते के लिए उन्होंने बंगले को दोष देना शुरू कर दिया.

कहीं अंतर्मन में उनका मानना था कि पाली हिल के पॉश इलाके के इस बंगले में शिफ़्ट होने के बाद से ही उनके और गुरु के रिश्ते में कभी ना भरने वाली दरार पैदा हो गयी थी.

वो ये यक़ीन करने लगीं कि बंगला नंबर 48 के कारण ही उनके वैवाहिक जीवन में अपशकुन हुआ है.

गुरु-गीता की शुरुआती मुलाक़ातों से लेकर अंत तक रिश्ते की गवाह रही ललिता लाजमी ने मुझे बताया था, ”गीता मानने लगी थीं कि बंगला भुतहा था. घर के लॉन में एक ख़ास तरह का पेड़ था और वो कहती थीं कि उस पेड़ पर भूत रहता है जो उनकी शादी को बर्बाद कर रहा है. उनके विशाल ड्रॉइंग रूम में बुद्ध की एक मूर्ति भी थी. उससे भी उन्हें कुछ आपत्ति थी. दोनों में बहुत झगड़े होते थे. वो बार बार गुरु से यह बंगला छोड़कर कहीं और रहने की बात कहती थीं.”

ये ख़याल ही गुरुदत्त के लिए दिल तोड़ देने वाला था. ये उनके सपनों का घर था. मगर गुरुदत्त को इस कड़वी सच्चाई का अहसास होने लगा था कि ये वो घर नहीं बन पाया जिसकी उन्हें चाहत थी.

ललिता लाजमी ने अपने इंटरव्यू में बताया, ”जो गीता चाहती थीं गुरुदत्त आख़िरकार बंगला छोड़ने के लिए सहमत हो गये. मगर उनका दिल टूट गया. वो गीता को ही दोष दिया करते थे.”

गुरुदत्त का तनाव इतना बढ़ा कि जिस बंगले में रहते हुए गुरुदत्त ने भारतीय सिनेमा की यादगार फिल्मों को रचा, उसी बंगले में रहते हुए उन्होंने दो बार ख़ुदकुशी की कोशिश भी की.

ललिता लाजमी ने बताया था कि बड़ी मुश्किल से दोनों बार गुरुदत्त की जान बचाई जा सकी. उन्होंने बताया था, ”कई बार गीता से झगड़ा होता तो वो मुझे बुलाया करते थे. मैं आधी रात को भागकर उनके पास पहुँच जाती. मगर वो चुपचाप बैठे रहते थे. मुझे लगता था कि वो कुछ कहना चाहते हैं लेकिन वो बस ख़ामोश बैठे रहते, कभी कुछ नहीं कहा, कभी भी नहीं.”

दो बार ख़ुदकुशी की कोशिश करने वाले इंसान ने इसके बारे में कभी परिवार से बात तक नहीं की थी. फिर साल 1963 में अपने जन्मदिन पर गुरुदत्त ने एक अजीब निर्णय लिया.

(आत्महत्या एक गंभीर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्या है. अगर आप भी तनाव से गुज़र रहे हैं तो भारत सरकार की जीवनसाथी हेल्पलाइन 18002333330 (Jeevan Aastha Suicide Prevention And Mental Health Care Helpline) से मदद ले सकते हैं. आपको अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से भी बात करनी चाहिए)

बंगले को तोड़ने दो

उस दोपहर गीता बंगले में सो रही थीं जब उन्हें कुछ शोर सा सुनाई दिया. उन्होंने देखा कि कुछ मज़दूर बंगले की दीवार तोड़ रहे थे. उन्होंने तुरंत गुरुदत्त को स्टूडियो में फोन किया.

गुरुदत्त ने गीता को बताया, ”उन्हें तोड़ने दो गीता. मैंने ही उनसे कहा है. हम कुछ दिन होटल में रहेंगे. मैंने एक कमरा पहले ही बुक करा लिया है.”

गीता और उनके बच्चों ने सोचा था कि गुरु शायद कुछ कंस्ट्रक्शन का काम करा रहे हैं और पूरा होते ही वो सब वापस इस बंगले में आ जाएंगे.

गुरुदत्त ने ये सब इतनी बेफिक्री से बोला जैसे किसी फ़िल्म की शूटिंग पूरी हो जाने के बाद उसका सेट गिराया जा रहा हो. इस बार ये सेट फिल्मी नहीं था.

वो बंगला ढहाया जा रहा था जिसके ‘घर’ बनने का ख्वाब उन्होंने देखा था. कुछ ही दिन में बंगला नंबर 48 ज़मींदोज़ कर दिया गया. बंगले के मलबे में कमरों की दीवारें थीं, टूटा हुआ नीला संगमरमर था, बिखरी हुई लकड़ियां और प्लास्टर के टुकड़े थे. मगर इनके साथ साथ एक सपने के टूटे हुए टुकड़े भी थे.

गुरुदत्त की बहन ललिता लाजमी ने बताया था, “मुझे याद है उस दिन उनका जन्मदिन था. वो उस बंगले से प्यार करते थे और जब उसे गिराया गया तो ना जाने उनके दिल पर क्या बीती होगी.”

किताब ‘बिनिद्र’ में दर्ज है कि उन्होंने अपने दोस्त और ‘साहिब, बीबी और गुलाम’ के लेखक बिमल मित्र से कहा था कि उन्होंने अपना बंगला पत्नी गीता की वजह से तुड़वाया.

बंगला नंबर 48 के ढहने के बाद गुरुदत्त का जीवन और परिवार की ख़ुशियां भी हर गुज़रते दिन के साथ ढहती चली गई थीं.

बंगले से निकलने के बाद गीता और बच्चों के साथ गुरुदत्त पाली हिल में ही दिलीप कुमार के बंगले के सामने आशीष नाम की बिल्डिंग में शिफ्‍ट हो गए थे. लेकिन उनका और गीता का रिश्ता नहीं सुधरा.

कुछ समय बाद अपने बच्चों को लेकर गीता बांद्रा में एक दूसरे किराए के मकान में चली गयीं.

अपने भव्य बंगले की यादों को पीछे छोड़कर गुरुदत्त बंबई की पेडर रोड पर आर्क रॉयल अपार्टमेंट में अकेले रहने लगे.

‘माई सन गुरुदत्त’ में गुरुदत्त की मां ने लिखा, ”गुरु के सितारे गर्दिश में थे. उन्होंने अपना सुंदर बंगला नष्ट कर दिया. जब से बंगला ढहाया गया था, गुरु का पारिवारिक जीवन भी टुकड़े-टुकड़े होता चला गया.”

गुरुदत्त की असमय मृत्यु

तक़रीबन एक साल बाद, 10 अक्टूबर 1964 की सुबह गुरुदत्त बंबई की पेडर रोड पर आर्क रॉयल अपार्टमेंट में स्थित अपने घर के बेड रूम में मृत अवस्था में पाये गये थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने पहले खूब शराब पी होगी और उसके बाद ढेर सारी नींद की गोलियाँ भी खा लीं होंगी जो इस उनकी मौत का कारण बनी।

उन दिनों को याद करते हुए ललिता लाजमी ने अफ़सोस के साथ कहा था कि अगर खुशहाल घर बना होता तो उनके भाई का अंत इतनी जल्दी ना होता.

गुरुदत्त अपनी फिल्मों से अमर हो गए लेकिन बंगला नंबर 48 का अब कोई नामोनिशान तक नहीं है।

गुरुदत्त ने कहा था, ”घर ना होने की तकलीफ़ से, घर होने की तकलीफ़ और भयंकर होती है.”

गुरुदत्त को हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम युग की क्लासिक फ़िल्मों जैसे प्यासा, कागज़ के फूल और साहब बीबी और ग़ुलाम के लिए जाना जाता है। गुरुदत्त की मृत्यु के बाद गीतादत्त को नर्वस ब्रेकडाउन का सामना करना पड़ा और उन्होंने बहुत अधिक शराब पीना शुरू कर दिया। और सिर्फ़ आठ साल बाद ही 20 जुलाई 1972 को लीवर सिरोसिस के कारण गीतादत्त की भी मृत्यु हो गई थी।

 

 

कमलेश पाण्डेय
अनौपचारिक एवं औपचारिक लेखन के क्षेत्र में सक्रिय, तथा समसामयिक पहलुओं, पर्यावरण, भारतीयता, धार्मिकता, यात्रा और सामाजिक जीवन तथा समस्त जीव-जंतुओं पर अपने विचार व्यक्त करना।

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