पुराणिक कथाओं और इतिहास में दर्ज विभिन्न उत्सवों के वर्णन से पता चलता है कि, रंगों का त्योहार होली अत्यंत प्राचीन पर्व या उत्सव है। भारतीय उपमहादीप के विशाल भू-भाग और सांस्कृतिक विविधता में क्षेत्रीयता के अनुसार होली कई अन्य नाम भी हैं, जैसे कि, धुलंडी, फागुआ, डोल पूर्णिमा, रंगवाली होली, उकुली, मंजल कुली, याओसांग, शिगमो, जाजीरी, फगवाह, होलाका, धूलिवंदन. और होलिका हैं।
हिन्दू पंचांग में वर्ष के अंतिम माह फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होली का त्योहार मनाया जाता है। वसंत ऋतु के फाल्गुन मास की पूर्णिमा और चैत्र नव-वर्ष के आगमन के उपलक्ष्य में मनाए जाने वाले इस उत्सव को सम्पूर्ण भारतीय उपमहादीप में हिन्दू संस्कृति के वंशजों द्वारा किसी न किसी नाम से मनाया जाता है। वसंत ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा जाता है।
होली का उत्सव भारत के कई राज्यों में पर्यटन के रूप में भी प्रसिद्ध है जैसे,
- भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली उत्तर प्रदेश के बरसाना (मथुरा) की लठमार होली
- पंजाब में होली के दिन मनाया जाने वाला ‘होला मोहल्ला’ उत्सव
- केरल में मंजल कुली और उक्कुली के नाम से मनाई जाने वाला होली का उत्सव
- बिहार में फगुआ के नाम से मनाया जाने वाला होली का उत्सव
- मणिपुर में मनाया जाने वाला याओसांग उत्सव। याओसांग वसंत ऋतु में पाँच दिनों तक मनाया जाने वाला एक त्यौहार है, जो लमता (फरवरी-मार्च) महीने की पूर्णिमा के दिन से शुरू होता है। याओसांग मेइती लोगों का स्वदेशी परंपरागत और सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार माना जाता है।
होली का इतिहास कितना पुराना है?
होली पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।
इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं।
मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।
होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल से यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी, जो आज भी भारत के कई हिन्दी भाषी राज्यों में प्रचलित है।
एक अन्य कथा के अनुसार त्रेतायुग की शुरुआत में भगवन विष्णु जी ने धूलि का वंदन किया था। इसलिए होली के इस त्यौहार को धुलेंडी के नाम से भी मनाया जाता है। धुलेंडी होली के अगले दिन मनाया जाता है जिसमें लोग एक दूसरे पर धुल लगाते हैं और इसे धूल स्नान कहा जाता है।
वैदिक काल में, होली के पर्व को “नवात्रैष्टि यज्ञ” (Navatreishti Yagya) पर्व के रूप में मनाया जाता था, जिसमें नई फसल के उस समय खेत के अधपके अन्न (अनाज) को यज्ञ में अर्पित कर प्रसाद ग्रहण करने की प्रथा थी, और इस अधपके अन्न (अनाज) को “होला” कहा जाता था , इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।
भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है।
इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।
मन्वादि तिथि क्या है?
मन्वादि तिथि वह तिथि होती है जिस पर मन्वंतर अथवा मनु के युग की शुरुआत होती है, और शास्त्रों में इसे पुण्य कार्यों के लिए बहुत ही शुभ माना गया है। शास्त्रों में युगादि और मन्वादि तिथियों को पुण्य कर्म हेतु बहुत उपयुक्त माना गया है।
मन्वादि तिथि के बारे में जानकारी,
- मन्वंतर: हिंदू धर्म में, मन्वंतर मनु के युग को कहते हैं, जो ब्रह्मांड के एक निश्चित चक्र में मनु के शासनकाल को दर्शाता है.
- मन्वादि तिथि का महत्व: मन्वादि तिथि पर किए गए स्नान, दान और अन्य पुण्य कार्य अक्षय फल देते हैं.
- मन्वादि तिथि पर विशेष पूजा: इस तिथि पर भगवान विष्णु और महर्षि वेदव्यास की पूजा करने की परंपरा है.
- फाल्गुन पूर्णिमा: फाल्गुन पूर्णिमा को मन्वादि तिथि माना जाता है, इसलिए इस दिन सूर्य को अर्घ्य देने से पितरों को भी संतुष्टि मिलती है.
भारत के राज्यों में होली कैसे मनाते हैं?
भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली देश और विदेश में भी आकर्षण का बिंदु होती है। जिसमें बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इस प्रकार मथुरा और वृंदावन में १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है।
उत्तराखंड या पहाड़ों में कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की डोल जात्रा को चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भजन कीर्तन के साथ शोभा यात्रा निकाली जाती है।
महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है।
तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया, जो होली का ही एक रूप है।
बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।
प्राचीन काल में लोग चन्दन और गुलाल से ही होली खेलते थे। समय के साथ इनमें भी बदलाव देखने को मिला है। कई लोगों द्वारा प्राकृतिक रंगों का भी उपयोग किया जा रहा है, जिससे त्वचा या आँखों पर किसी भी प्रकार का कुप्रभाव न पड़े।
होलिका और भक्त प्रहलाद
प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के अहंकार में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। लेकिन हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहलाद ईश्वर भक्त था। प्रहलाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु प्रहलाद ने ईश्वर की भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ा।
हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रहलाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रहलाद की ईश्वर भक्ति और सत्य की विजय और बुराई की पराजय के रूप में इस दिन होली जलाई जाती है। तथा प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रहलाद का अर्थ आनन्द होता है। हिंसा, ईर्ष्या और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।
हिन्दू पंचांग के अनुसार वर्ष के अंतिम माह फाल्गुन की पूर्णिमा को असुर राजा हरिण्याकश्यप की बहन होलिका का दहन हुआ था। और भक्त प्रहलाद बच गए थे। इसी की याद में होलिका दहन किया जाता है। यह होली का प्रथम दिन होता है। कहते हैं कि यह घटना यूपी के एक गांव में घटी थी जहां पर इसी घटना की याद में एक मंदिर बना हुआ है जिसे 5 हजार वर्ष पुराना मंदिर माना जा रहा है।
होली की शुरुआत उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के ककेड़ी गांव से हुई थी। यह स्थान भगवान नरसिंह के मंदिर, प्रहलाद घाट और हिरण्यकश्यप के महल के अवशेषों का साक्षी है। मान्यता है कि पहले हरदोई को हरिद्रोही कहा जाता था, जो हिरण्यकश्यप की राजधानी थी। हरदोई जिले के सांडी ब्लॉक के ककेड़ी गांव में स्थित नृसिंह भगवान का मंदिर 5000 वर्षों से भी अधिक प्राचीन माना जाता है। यहां के लोग भगवान नरसिंह की पूजा के साथ होली का शुभारंभ करते हैं।
जब हिरण्यकशिपु की बहन होलिका आग में जल गई और प्रहलाद बच गया। तब प्रहलाद के बचने की खुशी में वहां की जनता ने खुशी मनाते हुए एक दूसरे पर रंग और गुलाल लगा कर उत्सव मनाया था और उसी समय से इस दिन रंग और गुलाल लगाकर उत्सव मनाने की परंपरा शुरू हुई। होली की शुरुआत हरदोई से होने की बात धार्मिक ग्रंथों और हरदोई गजेटियर में भी उल्लेखित है।
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