अंबेडकर को कांग्रेस ने चुनाव में दो बार में हराया, जबकि जनसंघ ने दिया था समर्थन।
अंबेडकर और काँग्रेस के संबंधों पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बात की, 18 दिसंबर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बाबा ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में काँग्रेस और बाबा साहब अंबेडकर के संबंधों पर उन्होंने कहा कि, कांग्रेस ने अंबेडकर को चुनाव हराने और भारत रत्न नहीं देने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अमित शाह का कहना था कि नेहरू जी की अंबेडकर के प्रति नफ़रत जगजाहिर है।
आईए इतिहास पर एक नजर डालते है,
आंबडेकर को महाड़ सत्याग्रह से मिली पहचान
अंबेडकर ने साल 1924 में इंग्लैंड से वापस आने के बाद वकालत और दलितों के उत्थान के लिए काम करना शुरू किया। और साल 1927 में डॉ. अंबेडकर ने महाड़ सत्याग्रह आंदोलन का नेतृत्व किया और इसके बाद भारत में उन्हें दलितों की आवाज़ के रूप में पहचान मिली.
यह आंदोलन दलितों को सार्वजनिक चावदार तालाब से पानी पीने और इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाने के लिए किया गया था.
महाड़ पश्चिम महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में एक कस्बा है. इस सत्याग्रह से डॉ. अंबेडकर के राजनीतिक करियर की शुरुआत मानी जाती है. और महाड़ सत्याग्रह, इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण के रूप में जाना जाता है।
अंबेडकरके नेतृत्व में, इस अहिंसक विरोध ने भारत में दलित समुदाय के लिए सामाजिक न्याय, समानता और नागरिक अधिकार प्राप्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया।
‘महाड़ सत्याग्रह’ में मंच पर मुख्य तस्वीर महात्मा गांधी की थी। बाबा साहेब अंबेडकर हिन्दू धर्म में एक सुधार ला कर छुआछूत को ख़त्म करना चाहते थे। इसके लिए वो चाहते थे कि हिन्दू धर्म के प्रगतिशील लोग सामने आएं और इस सामाजिक कुरीति को ख़त्म कर दें।
लेखक केशव वाघमारे बताते हैं कि अंबेडकर, गांधी और कांग्रेस के बीच ‘प्यार और नफ़रत’ के रिश्ते थे।
अंबेडकर और महात्मा गांधी की पहली मुलाक़ात
अंबेडकर अछूतों के लिए काम कर रहे थे और उस दौरान गांधी भी इस वर्ग की आवाज़ उठा रहे थे, लेकिन दोनों के काम करने के अपने तरीक़े थे।
अंबेडकर को गोलमेज सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया गया था, जबकि गांधी जी सालों से दलितों के लिए काम कर रहे थे और अब इससे अंबेडकर इस विमर्श के केंद्र में आ गए थे।
14 अगस्त, 1931 को मुंबई के मणि भवन में दोनों के बीच पहली बैठक हुई और यह मुलाक़ात काफ़ी दिलचस्प थी। लेकिन अंबेडकर ने आरोप लगाते हुए कहा था कि ‘कांग्रेस की दलितों के प्रति सहानुभूति औपचारिकता भर’ है।
अंबेडकर की महात्मा गांधी ने शांत करने की कोशिश की और उन्हें मातृभूमि के संघर्ष में ‘एक महान देशभक्त’ बताया।
अंबेडकर ने इस पर जवाब दिया, “गांधी जी मेरी कोई मातृभूमि नहीं है, कोई भी स्वाभिमानी अछूत इस भूमि पर गर्व नहीं कर सकता, जहाँ उसके साथ बिल्लियों और कुत्तों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है.”
दोनों के बीच इस बातचीत का ज़िक्र काँग्रेस के सांसद शशि थरूर की किताब ‘आंबेडकर: अ लाइफ़’ (‘Ambedkar: A Life’ : By Shashi Tharoor) में मिलता है.
गांधी-अंबेडकर के बीच तनाव और पूना पैक्ट
वर्ष 1932 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दलितों, मुसलमानों, सिखों, भारतीय ईसाइयों और अन्य लोगों के लिए अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों की घोषणा की गई थी।
इसके तहत केंद्रीय विधानमंडल में दलितों के लिए 71 सीटें आरक्षित की गई थीं।
इन निर्वाचन क्षेत्रों में दलित उम्मीदवार और केवल दलितों को ही वोट देने का अधिकार था लेकिन, गांधी को यह बिल्कुल पसंद नहीं आया था। और इसके ख़िलाफ़ सितंबर 1932 में गांधी ने पुणे की यरवदा जेल में अपना अनशन शुरू किया और देश में तनाव का माहौल बन गया।
अंबेडकर ने कहा था, “मैं चर्चा के लिए तैयार हूँ लेकिन गांधी जी को कोई नया प्रस्ताव लेकर आना चाहिए.”
22 सितंबर को अंबेडकर गांधी से मिलने यरवदा जेल गए और अंबेडकर ने कहा कि आप हमारे साथ अन्याय कर रहे हैं.
इस पर गांधी ने कहा, “आप जो कह रहे हैं, मैं उससे सहमत हूँ. लेकिन आप चाहते हैं कि मैं जीवित रहूँ?”
इसके बाद ‘पूना पैक्ट’ हुआ और स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्रों की जगह आरक्षित सीटों के प्रस्ताव पर सहमति बनी।
डॉ अंबेडकर ने 24 सितंबर 1932 को अछूतों के लिए 147 से ज़्यादा आरक्षित सीटों के साथ पूना पैक्ट के समझौते पर हस्ताक्षर किए।
पूना पैक्ट ने अंबेडकर और कांग्रेस के बीच गहरी खाई को सामने ला दिया। अंबेडकर का मानना था कि गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने दलितों के अधिकारों से समझौता किया है, जिसके कारण उन्होंने खु़द को पार्टी से दूर कर लिया है।
1955 में बीबीसी को दिए इंटरव्यू में अंबेडकर ने कहा था, “मुझे आश्चर्य होता है कि पश्चिम गांधी में इतनी दिलचस्पी क्यों लेता है। जहाँ तक भारत की बात है, वो देश के इतिहास का एक हिस्सा भर हैं। वो युग निर्माण करने वाले नहीं हैं.”
राजनीति में डॉ अंबेडकर और कांग्रेस में मतभेद
साल 1942 से लेकर 1946 तक जब स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था, तब अंबेडकर, वायसराय की काउंसिल में श्रम मंत्री थे.
इसके बाद जुलाई, 1946 में अंबेडकर बंगाल से संविधान सभा के सदस्य बने थे और अंग्रेजों से आज़ादी मिलने के बाद संविधान सभा के सदस्य ही पहली संसद के सदस्य बने थे।
विभाजन के बाद अंबेडकर का निर्वाचन क्षेत्र पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में चला गया, तब अंबेडकर के सामने संविधान सभा में पहुंचने की चुनौती थी.
वरिष्ठ लेखक रावसाहब कसबे बताते हैं कि, “कांग्रेस और बाबा साहेब अंबेडकर के बीच मतभेद जगजाहिर थे लेकिन फिर भी गांधी चाहते थे कि अंबेडकर संविधान सभा में रहें. उन्होंने राजेंद्र प्रसाद और वल्लभभाई पटेल को बुलाया और कहा कि मुझे हर हाल में अंबेडकर संविधान सभा में चाहिए। उसके बाद दोनों ने फिर बाबा साहेब को खत लिखे और फिर बाबा साहेब अंबेडकर को मुंबई प्रांत से चुनकर भेजा गया.”
इसके बाद डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष के रूप में उल्लेखनीय योगदान दिया.
भारत को आज़ादी मिली लेकिन बहुसंख्यक हिन्दू समाज में पुरुष और महिलाओं को समान अधिकार नहीं थे।
जिसमें पुरुष एक से ज़्यादा शादी कर सकते थे लेकिन विधवा महिला दोबारा शादी नहीं कर सकती थी तथा विधवाओं को संपत्ति से भी वंचित रखा जाता था और महिलाओं को तलाक़ का अधिकार नहीं था।
अंबेडकर इन समस्याओं से भली-भांति परिचित थे, इसलिए उन्होंने 11 अप्रैल 1947 को संविधान सभा के सामने हिंदू कोड बिल पेश किया था. इसमें संपत्ति, विवाह, तलाक़ और उत्तराधिकार संबंधित क़ानून शामिल थे।
अंबेडकर ने इस क़ानून को अब तक का सबसे बड़ा सामाजिक सुधार उपाय बताया था लेकिन इस बिल का जमकर विरोध हुआ। अंबेडकर के बिल के पक्ष में तर्क और नेहरू का समर्थन काम न आया और 9 अप्रैल 1948 को सेलेक्ट कमिटी के पास भेज दिया गया।
बाद में 1951 में इस बिल को फिर से संसद में पेश किया गया लेकिन फिर से विरोध हुआ। संसद में जनसंघ और कांग्रेस का एक हिंदूवादी धड़ा इसका विरोध कर रहा था और विरोध करने वालों के मुख्य रूप से दो तर्क थे जिसमें,
पहला तर्क, संसद के सदस्य जनता के चुने हुए नहीं हैं, इसलिए इतने बड़े विधेयक को पास करने का नैतिक अधिकार नहीं है।
दूसरा तर्क था कि, इन क़ानून को सभी पर लागू होना चाहिए यानी ‘समान नागरिक आचार संहिता’ (Uniform Civil Code).
अंबेडकरकहते थे, “भारतीय विधानमंडल द्वारा अतीत में पारित या भविष्य में पारित होने वाले किसी भी क़ानून की तुलना इसके (हिंदू कोड) महत्व के संदर्भ में नहीं की जा सकती है। समुदायों के बीच और लिंग के बीच असमानता हिंदू समाज की आत्मा है। इसे अछूता छोड़कर आर्थिक समस्याओं से संबंधित क़ानून पारित करना हमारे संविधान का मज़ाक बनाना और गोबर के ढेर पर महल बनाना है.”
लेकिन यह बिल अंबेडकर के क़ानून मंत्री रहते हुए पास नहीं हो सका और अंबेडकर ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
पहला आम चुनाव और अंबेडकर की हार
भारत की आज़ादी के चार साल बाद पहला लोकसभा चुनाव हुआ।
यह प्रक्रिया 25 अक्टूबर 1951 से 21 फ़रवरी 1952 तक लगभग चार महीने तक चली थी।
पहले चुनाव में 489 लोकसभा सीटों के लिए 50 से अधिक पार्टियों के 1500 से अधिक उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा।
इनमें से लगभग 100 निर्वाचन क्षेत्र द्वि-सदस्यीय थे, यानी एक ही निर्वाचन क्षेत्र से दो सांसद, एक सामान्य और एक आरक्षित वर्ग से चुने जाते थे।
बाबा साहेब अंबेडकर तत्कालीन बॉम्बे प्रांत सेअपनी पार्टी ‘शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ (Scheduled Castes Federation) के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरे थे, उनका निर्वाचन क्षेत्र उत्तरी मुंबई था और यह दो सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र था।
कांग्रेस ने अंबेडकर के ख़िलाफ़ ‘नारायण काजरोलकर’ को उतारा था।
चुनाव हुए और नतीजों ने सारे देश को चौंका दिया।
काजरोलकर को एक लाख 38 हज़ार 137 वोट मिले थे जबकि बाबा साहेब अंबेडकर को एक लाख 23 हज़ार 576 वोट मिले थे।
कांग्रेस के काजरोलकर ने अंबेडकर को हराया, वो भी पूरे 14 हज़ार 561 वोटों से।
अंबेडकर इस हार से सदमे में आ गए, और पहले से ही कई बीमारियों से जूझ रहे अंबेडकर का स्वास्थ्य उस दौरान ज्यादा ख़राब हो गया।
बाद में अंबेडकर बम्बई प्रांत से राज्यसभा में चले गए लेकिन वे लोकसभा में जाना चाहते थे.
भंडारा में उपचुनाव में कांग्रेस ने फिर अंबेडकर को हराया
इसके दो साल बाद ही भंडारा में उपचुनाव हुए तो अंबेडकर वहां खड़े हुए. हालांकि, कांग्रेस उम्मीदवार ने उन्हें वहां भी हरा दिया।
इन सभी इतिहास घटनाओं से लगता है की काँग्रेस और डॉ अंबेडकर के संबंध विचारिक मतभेद के कारण कभी भी सामान्य नहीं रहे।
प्रसिद्ध इतिहासकार रामचन्द्र गुहा एक जगह ( Democracy’s Biggest Gamble: India’s First Free Elections in 1952. Author(s): Ramachandra Guha, World Policy Journal (2002) 19 (1): 95–103.)
यह बात बताते हैं की, काँग्रेस और डॉ अंबेडकर के संबंध मतभेद वाले ही रहे है.
Democracy’s Biggest Gamble: India’s First Free Elections in 1952. Author(s): Ramachandra Guha