संत ज्ञानेश्वर या संत ज्ञानदेव का भारतीय इतिहास में एक अद्वितीय स्थान है, और उन्हें महान संतों में गिना जाता है। उनके जीवन और उनके योगदान को समझना हमें उनकी महानता को करीब से देखने का अवसर देता है।
संत ज्ञानेश्वर ने ज्ञानेश्वरी की रचना की। संत ज्ञानेश्वर की गणना भारत के महान संतों एवं मराठी कवियों में होती है। ये संत नामदेव के समकालीन थे और उनके साथ इन्होंने पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण कर लोगों को ज्ञान-भक्ति से परिचित कराया और समता, समभाव का उपदेश दिया। वे महाराष्ट्र-संस्कृति के ‘आद्य-प्रवर्तकों’ में भी माने जाते हैं।
संत ज्ञानेश्वर का जन्म सन १२७५ ईसवी में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में पैठण के पास गोदावरी नदी के किनारे आपेगाँव में श्रावण के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। इनके पिता का नाम विट्ठल पंत एवं माता का नाम रुक्मिणी बाई था। इनके पिता उच्च कोटि के मुमुक्षु तथा भगवान् विट्ठलनाथ के अनन्य उपासक थे।
विवाह के उपरांत ज्ञानेश्वर ने संन्यास दीक्षा ग्रहण की थी, किंतु उन्हें अपने गुरुदेव की आज्ञा से फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना पड़ा। इस अवस्था में उन्हें निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव तथा सोपान नामक तीन पुत्र एवं मुक्ताबाई नाम की एक कन्या हुई। संन्यास-दीक्षा-ग्रहण के उपरांत इन संतानों का जन्म होने के कारण इन्हें ‘संन्यासी की संतान’ यह अपमानजनक संबोधन निरंतर सहना पड़ता था। विट्ठल पंत को तो उस समय के समाज द्वारा दी गई आज्ञा के अनुसार देहत्याग तक करना पड़ा था।
पिता की छत्रछाया से वंचित अनाथ भाई-बहन जनापवाद के कठोर आघात सहते हुए ‘शुद्धिपत्र’ की प्राप्ति के लिये उस समय के सुप्रसिद्ध धर्मक्षेत्र पैठन में जा पहुँचे।
किम्वदंती प्रसिद्ध है कि, ज्ञानदेव ने यहाँ उनका उपहास उड़ा रहे ब्राह्मणों के समक्ष भैंसे के मुख से वेदोच्चारण कराया था। (गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित इनके जीवन-परिचय के अनुसार – “) इनके इस अलौकिक चमत्कार से प्रभावित हो पैठन (पैठण) के प्रमुख विद्वानों ने उन चारों भाई बहनों को शक संवत १२०९ (सन् १२८७) में ‘शुद्धिपत्र’ प्रदान कर दिया।
परमार्थमार्ग में कृतार्थ एवं सामाजिक दृष्टि से पुनीत ज्ञानदेव ने आबालवृद्धों को अध्यात्म का सरल परिचय प्राप्त कराने के उद्देश्य से श्रीमद्भगवद्गीता पर मराठी में टीका लिखी। इसी का नाम है भावार्थदीपिका अथवा ज्ञानेश्वरी। इस ग्रंथ की पूर्णता शक संवत १२१२ नेवासे गाँव के महालय देवी के मंदिर में हुई। कुछ विद्वानों का अभिमत है- इन्होंने अभंग-वृत्त की एक मराठी टीका योगवासिष्ठ पर भी लिखी थी, पर दुर्भाग्य से वह अप्राप्य है।
उन दिनों के लगभग सारे धर्मग्रंथ संस्कृत में होते थे और आम जनता बहुत संस्कृत नहीं जानती थी, अस्तु तेजस्वी बालक ज्ञानेश्वर ने केवल १५ वर्ष की उम्र में ही गीता पर मराठी की बोलचाल भाषा में ‘ज्ञानेश्वरी’नामक गीता-भाष्य की रचना करके मराठी जनता की उनकी अपनी भाषा में उपदेश कर जैसे ज्ञान की झोली ही खोल दी। स्वयं टीकाकार ने लिखा है- “अब यदि मैं गीता का ठीक-ठीक विवेचन मराठी (देशी) भाषा में करूं तो इस में आश्चर्य का क्या कारण है …गुरु-कृपा से क्या कुछ सम्भव नहीं ?”
इस ग्रंथ की समाप्ति के उपरांत ज्ञानेश्वर ने अपने राजनीतिक सिद्धांतों की स्वतंत्र विवेचना करनेवाले ‘अमृतानुभव’ नामक दूसरे ग्रंथ का निर्माण किया। इस ग्रंथ के पूर्ण होने के बाद ये चारों भाई-बहन पुणे के निकटवर्ती ग्राम आलंदी आ पहुँचे। यहाँ से इन्होंने योगिराज चांगदेव को ६५ ओवियों (पदों) में जो पत्र लिखा वह महाराष्ट्र में ‘चांगदेव पासष्ठी’ नाम से विख्यात है।
ज्ञानदेव जब तीर्थयात्रा के उद्देश्य से आलंदी से चले उस समय इनके साथ इनके भाई, बहन, दादी, तथा विसोवा खेचर, गोरा कुम्हार आदि अनेक समकालीन संत भी थे। विशेषतया नामदेव तथा ज्ञानदेव के आपसी संबंध इतने स्नेहपूर्ण थे कि ऐसा लगता था मानो इस तीर्थयात्रा के बहाने ज्ञान और कर्म दोनों तपस्वियों के भेस में साकार रूप धारण कर एकरूप हो गए हों। तीर्थयात्रा से लौटते हुए ज्ञानदेव पंढरपुर मार्ग से आलंदी आ पहुँचे। विद्वानों का अनुमान हैं कि ज्ञानदेव ने इसी काल में अपने ‘अभंगों’ की रचना की होगी।
बालक से लेकर वृद्धों तक को भक्तिमार्ग का परिचय करा कर भागवत-धर्म की पुन:स्थापना करने बाद ज्ञानदेव ने आलंदी ग्राम में अत्यंत युवा होते हुए भी जीवित समाधि लेने का निश्चय किया।
मात्र २१ वर्ष तीन माह और पांच दिन की अल्पायु में वह इस नश्वर संसार का परित्याग कर समाधिस्थ हो गये।
ज्ञानदेव के समाधिग्रहण का वृत्तांत संत नामदेव ने अत्यंत हृदयस्पर्शी शब्दों में लिखा है।
अपने गुरु निवृत्तिनाथ को अंतिम वंदन कर ज्ञानदेव स्थितप्रज्ञ के समान समाधिमंदिर में जा बैठे। तदुपरांत स्वयं गुरु ने समाधिमंदिर की द्वारशिला बंद कर दी।
ज्ञानेश्वर, जिन्हें ध्यानेश्वर भी कहा जाता है, ने यह जीवित समाधि ग्राम आलिंदी संवत में शके १२१७ (वि. संवत १३५३ (सन् १२९६) की मार्गशीर्ष वदी (कृष्ण) त्रियोदशी को ली, जो पुणे के लगभग १४ किलोमीटर दूर अब एक प्रसिद्ध तीर्थ बन गया है।
प्रत्येक वर्ष आषाद कृष्ण नवमी को ज्ञानेश्वर महाराज की समाधी से लाखों भक्त उनकी पादुका लेकर पंढरपुर तक की लगभग 250 kms की पेदल यात्रा करते हैं।
आषाढ़ी एकादशी के दिन पंढरपुर में पहुचकर भगवान विट्ठल की आराधना करते हैं, यह पालखी सोहला नाम से विख्यात है।
ज्ञानेश्वर, एक प्रमुख वैष्णव संत के रूप में पहचाने जाते हैं। भगवद गीता पर उनकी व्याख्या, जिसे “ज्ञानेश्वरी” के नाम से जाना जाता है, उन्हें विशेष ख्याति दिलाती है। इस ग्रंथ को हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण रचना माना जाता है और भारतीय धार्मिक साहित्य में एक अद्वितीय स्थान प्राप्त है। इसके अलावा, उन्होंने याज्ञवल्क्य स्मृति सहित कई अन्य धार्मिक ग्रंथों का भी सृजन किया।
उनके विचार और शिक्षाएँ आज भी लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उनके ज्ञान और मार्गदर्शन को समझने के लिए, हमें उनकी शिक्षा का गहराई से अवलोकन करना चाहिए, जिसमें उन्होंने प्रेम, जीवन और आध्यात्मिकता के महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला।
ज्ञानेश्वर का बचपन आध्यात्मिक खोज के प्रति समर्पित था। बाल्यावस्था में ही उन्होंने सांसारिक मोह से दूरी बनाकर अद्वैत वेदांत के विद्वान श्री गणेश उपाध्याय से शिक्षा ग्रहण की। भगवद गीता पर उनका विस्तृत और गहन विश्लेषण उन्हें एक महान संत और दार्शनिक के रूप में स्थापित करता है।
उनकी शिक्षाओं ने भक्ति आंदोलन को एक नई दिशा दी। संत ज्ञानेश्वर का मानना था कि आत्म-साक्षात्कार ही जीवन का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए और इसे ध्यान और साधना के माध्यम से पाया जा सकता है। उनकी कविताएँ मराठी साहित्य में अतुलनीय मानी जाती हैं, और उनका प्रभाव भारतीय समाज और संस्कृति में आज भी महसूस किया जा सकता है।
उनकी आध्यात्मिक साधना, मराठी भाषा पर उनकी गहरी पकड़, और उनके द्वारा समाज के प्रति किया गया सेवा कार्य उन्हें विशिष्ट बनाता है। वारकरी संप्रदाय, जो महाराष्ट्र का एक प्रमुख आध्यात्मिक संप्रदाय है, पर भी उनका गहरा प्रभाव रहा है। भारतीय आध्यात्मिकता के क्षेत्र में ज्ञानदेव की रचनाएँ सदैव प्रेरणा देती रहेंगी।
ज्ञानेश्वर द्वारा रचित “अष्टादश शिव हिकारी” उनकी सबसे प्रसिद्ध काव्य रचना है, जिसमें 18,000 छंदों के माध्यम से शिव की महिमा का गुणगान किया गया है। यह रचना आज भी भक्तों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है।
संत ज्ञानेश्वर का दर्शन “ज्ञान” और आत्म-साक्षात्कार पर आधारित था। उनके अनुसार, अध्यात्मिकता की राह अंतर्ज्ञान और आत्म-विश्लेषण से होकर गुजरती है। उनकी शिक्षाएँ आज भी अनगिनत लोगों को मार्गदर्शन देती हैं और उन्हें प्रेरित करती हैं।
उनके विचारों की गहराई, आध्यात्मिकता की समझ और ज्ञान का बोध उन्हें एक महान संत के रूप में स्थापित करता है, और उनके विचार आज भी लोगों के हृदय में जीवित हैं।