शनिदेव को शनि ग्रह भी कहा जाता है, शनिदेव, सूर्य देव एवं माता छाया के पुत्र हैं और सूर्य देव साक्षात नारायण के अवतार है और सभी ग्रहों के अधिपति, अधिदेव माने गए है।
शनि देव को न्याय के देवता भी माना जाता है, अर्थात पृथ्वी के जीवों के साथ साथ सम्पूर्ण ब्रह्मांड के जीवों को न्याय देने में सक्षम हैं।
शनिदेव को न्याय के देवता, के साथ कर्मों का देवता भी माना जाता है।
शनिदेव के बारे में कुछ पौराणिक और लोक-प्रचलित तथ्य,
- शनिदेव, भगवान सूर्य और माता छाया के पुत्र हैं।
- शनिदेव के अन्य नाम, यमाग्रज, छायात्मज, नीलकाय, क्रुर कुशांग, कपिलाक्ष, अकैसुबन, असितसौरी, और पंगु हैं।
- शनिदेव का वाहन पक्षीराज गिद्ध हैं, और शनिदेव को गिद्ध पर सवारी करते हुए दिखाया जाता है।
- शनिदेव के हाथों में धनुष, बाण, और त्रिशूल रहते हैं।
- शनिदेव को न्यायाधीश भी कहा जाता है।
- शनिदेव की बहन का नाम देवी यमुना है, जो सूर्य देव की पुत्री भी हैं।
शनिदेव के जन्म के संदर्भ में, पौराणिक कथा के अनुसार, कश्यप मुनि के वंशज भगवान सूर्यनारायण की पत्नी स्वर्णा (छाया) की कठोर तपस्या से ज्येष्ठ मास की अमावस्या को शनि का जन्म हुआ था। माता छाया ने भगवान शंकर जी की कठोर तपस्या की थी और तेज गर्मी व धूप के कारण माता छाया के गर्भ में स्थित शनिदेव का वर्ण काला हो गया था, पर इस तप ने बालक शनि को अद्भुत व अपार शक्ति से युक्त कर दिया और उनका स्थान सर्वोच्च माना गया है।
अनुशासन और न्याय के देवता शनिदेव ऐसे जातक पर क्रोधित होते हैं जो अधार्मिक कार्यों में लिप्त रहते हैं, बेईमान, अनैतिक व्यवहार करते हैं, कर्तव्यों की उपेक्षा करना, बड़ों का निरादर (अनादर करना) और गरीब, दुखी तथा रोगियों के साथ दुर्व्यवहार करते है।
शनिदेव को कर्म (सत्कर्म) प्रिय है। आलसी और अकर्मंड जातक शनिदेव को पसंद नहीं हैं।
आईए शनिदेव और राजा विक्रमादित्य की प्रेरणादायक कहानी जानते हैं।
शनिदेव और राजा विक्रमादित्य की कहानी
शनिदेव और राजा विक्रमादित्य की कहानी के अनुसार, एक समय स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न को लेकर सभी देवताओं में वाद-विवाद प्रारम्भ हुआ और फिर परस्पर भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई। इस समस्या को लेकर सभी देवतागण, देवराज इंद्र के पास पहुंचे और बोले, हे देवराज! आपको निर्णय करना होगा कि नौ ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है?
देवताओं का प्रश्न सुनकर देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए। और कुछ देर सोच कर बोले, हे देवगणों! मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूं। पृथ्वीलोक में उज्ज्यिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य का राज्य है। हम राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं क्योंकि वह न्याय करने में अत्यंत लोकप्रिय हैं। उनके सिंहासन में अवश्य ही कोई जादू है कि उस पर बैठकर राजा विक्रमादित्य दूध का दूध और पानी का पानी अलग करने का न्याय करते हैं।
देवराज इंद्र के आदेश पर सभी देवता पृथ्वी लोक में उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे। देवताओं के आगमन का समाचार सुनकर स्वयं राजा विक्रमादित्य ने उनका स्वागत किया। महल में पहुंचकर जब देवताओं ने उनसे अपना प्रश्न पूछा तो राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे। क्योकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान शक्तिशाली थे। किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी।
तभी राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- स्वर्ण, रजत, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक, व लोहे के नौ आसन बनवाए। धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवा कर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा। सब देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा, आपका निर्णय तो स्वयं हो गया।
जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वही सबसे बड़ा है। राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनिदेव (शनि देवता) ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा, राजन! तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो। मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा।
सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष रहता हूं।
बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है।
भगवान राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाकर रहना पड़ा और रावण को साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा। उसके वंश का सर्वनाश हो गया।
राजन, अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा। राजा विक्रमादित्य शनि देवता के प्रकोप से थोड़ा भयभीत तो हुए, लेकिन उन्होंने मन में विचार किया, मेरे भाग्य में जो लिखा होगा, ज्यादा से ज्यादा वही तो होगा। फिर शनि के प्रकोप से भयभीत होने की आवश्यकता क्या है?
उसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ वहां से चले गए, लेकिन शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए।
राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे। उनके राज्य में सभी स्त्री पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे। कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। उधर शनिदेवता अपने अपमान को भूले नहीं थे। विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे।
शनिदेव का प्रकोप
राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी (शनिदेव का रूप) के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा। अश्वपाल ने वहां जाकर घोड़ों को देखा तो बहुत खुश हुआ। लेकिन घोड़ों का मूल्य सुन कर उसे बहुत हैरानी हुई। घोड़े बहुत कीमती थे। अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोड़े को पसंद किया। घोड़े की चाल देखने के लिए राजा उस घोड़े पर सवार हुआ तो वह घोड़ा बिजली की गति से दौड़ पड़ा। तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर राजा को वहां गिराकर जंगल में कहीं गायब हो गया। राजा अपने नगर को लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा। लेकिन उसे लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख-प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला। राजा ने उससे पानी मांगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी। फिर उससे रास्ता पूछकर वह जंगल से बाहर निकलकर पास के नगर में पहुंचा।
शनिदेव द्वारा राजा विक्रमादित्य की परीक्षा
राजा ने एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया। उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्ज्यिनी से आया हूं। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई। सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन के लिए ले गया।
सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था। राजा को उस कमरे में अकेला छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर गया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूंटी निगल गई। सेठ ने कमरे में लौटकर हार को गायब देखा तो चोरी का सन्देह राजा पर ही किया, क्योंकि उस कमरे में राजा ही अकेला बैठा था। सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि इस परदेसी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो।
राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके देखते ही देखते खूंटी ने हार को निगल लिया था। इस पर राजा ने क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया। राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया।
कुछ दिन बाद एक तेली (तेल निकालने वाला व्यापारी) उन्हें उठाकर अपने घर ले गया और अपने कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। राजा विक्रमादित्य पर शनिदेव के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने के समय वर्षा ॠतु प्रारम्भ हुई।
राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लड़की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी। उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गानेवाले को बुला लाने को कहा। दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार पर बहुत मोहित हुई थी। अत:उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया।
राज कुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वे हैरान रह गये। राजा को लगा कि उसकी बेटी पागल हो गई है। रानी ने मोहिनी को समझाया, बेटी तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है। फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पांव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रही है? राजा ने किसी सुंदर राजकुमार से उसका विवाह करने की बात कही। लेकिन राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड़ दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया। आखिर राजा, रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा।
शनिदेव का आशीर्वाद
विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा विक्रमादित्य से कहा, तुमने मेरा प्रकोप देख लिया। मैंने तुम्हें अपने अपमान का दण्ड दिया है। राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की, हे शनिदेव! आपने जितना दु:ख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना l
शनिदेव ने कुछ सोचते हुए कहा,राजा ! मैं तेरी प्रार्थना स्वीकार करता हूं। जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत कर के मेरी कथा सुनेगा, उस पर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी। उसे कोई दुख नहीं होगा।
शनिवार को व्रत करने और चींटियों को आटा डालने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी।
प्रात:काल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उसने मन-ही-मन शनिदेव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सही सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई। तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी कह सुनाई।
सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुंचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। राजा ने उसे क्षमा कर दिया, क्याेंकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था। सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहां एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूंटी ने वह हार उगल दिया। सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया।
राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्ज्यिनी पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष से उनका स्वागत किया। उस रात उज्ज्यिनी नगरी में दीप जलाकर लोगों ने दीवाली मनाई। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा करवाई, शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रत कथा अवश्य सुनें।
राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएं शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगीं। सभी लोग आनन्दपूर्वक रहने लगे।
शनिदेव (शनिवार) के व्रत का महत्व
- धैर्य और संयम की परीक्षा: शनिदेव की कृपा प्राप्त करने के लिए धैर्य आवश्यक है।
- पुण्य फल: शनिवार को व्रत करने और चींटियों को आटा डालने से जीवन में शुभ फल मिलता है।
- दुःखों का निवारण: शनिदेव की पूजा से व्यक्ति के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं।
शनिदेव (शनिवार) व्रत की विधि और पूजा मंत्र
- सुबह स्नान कर शनिदेव का ध्यान करें।
- सरसों का तेल, काले तिल, और काले वस्त्र अर्पित करें।
शनिदेव (शनिवार) की पूजा का मंत्र
- ॐ नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम। छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥ मंत्र का अर्थ: जिनका शरीर नीले वर्ण का है, जो छाया और सूर्य के पुत्र हैं एवं जो यम के बड़े भाई हैं।
- ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः॥ मंत्र का अर्थ: “हे शनिदेव, मेरा प्रणाम है, कृपया मुझ पर दया करें और मेरे मन को शांत करें”.
- ॐ शं शनैश्चराय नमः ॥ मंत्र का अर्थ: “सभी कर्मों का फल देने वाले, हे शनिदेव, आप हमारे कु कर्मों का नाश कर हमें शुभ फल प्रदान करने की कृपा करें”.
- अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेहर्निशं मया। दासोयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर ॥ मंत्र का अर्थ: यह मंत्र भूलवश की गई गलती के लिए क्षमा मांगने के लिए जपा जाता है.
शनिदेव को खुश करने के लिए क्या करें?
- अधार्मिक कार्य न करें सत्कर्म करें।
- बेईमान, अनैतिक व्यवहार, कर्तव्यों की उपेक्षा, बड़ों का निरादर (अनादर करना) न करें।
- गरीब, दुखी तथा रोगियों के साथ दुर्व्यवहार न करें एवं उनकी समुचित सेवा करें।
- जानवरों (जल-चर, जैसे मछली), नभ-चर, जैसे पक्षी, थल-चर, जैसे गाय, कुत्ते, या अन्य) को भोजन दें, उनकी सेवा करें, उनको सताये नहीं।
- दान-पुण्य का स्वभाव रखें, दान के बाद उसका मूल्य या सही गलत, न सोचें।
- शनिवार को शनिदेव की पूजा करें, शनिदेव के मंत्र का जाप एवं शनियंत्र की पूजा करें।
- रामभक्त श्री हनुमान जी की आराधना करें।
- देवाधिदेव महादेव की पूजा करें।
- शनिदेव को कर्म (सत्कर्म) प्रिय है। आलसी और अकर्मंड जातक शनिदेव को पसंद नहीं हैं इसलिए कर्मशील और कर्मठ बनें।
आलेख प्रस्तुति: कमलेश पाण्डेय (Article prepared by:Kamlesh Pandey)