अत्रि ऋषि (वैदिक ऋषि) सनातन परंम्परा में सप्तर्षि (सात महान वैदिक ऋषियों) में से एक है, और ऋग्वेद में इनका उल्लेख भी मिलता है। अयोध्या नरेश दसरथ नंदन प्रभु श्रीराम अपने वनवास काल में भार्या सीता तथा बन्धु लक्ष्मण के संग अत्रि ऋषि के चित्रकूट आश्रम में पधारे थे।
अत्रि ऋषि कौन थे?
अत्रि ऋषि (Atri Rishi) माता अनुसुईया के पति थे। माता सती अनुसुईया सोलह सतियों में से एक थीं। जिन्होंने अपने तपोबल से ब्रम्हा, विष्णु एवं महेश को बालक रूप में परिवर्तित कर दिया था। तथा पुराणिक वर्णन के अनुसार, इन्हीं तीनों देवों से माता अनुसुईया ने वरदान प्राप्त किया था, कि हम आपके पुत्र रूप में आपके गर्भ से जन्म लेंगे। और कालांतर में इन्ही तीनों देव ने चन्द्रमा (ब्रम्हा) दत्तात्रेय (विष्णु) और दुर्वासा (शिव) के रूप में ऋषि अत्रि और माता अनुसुईया के पुत्र रूप में जन्म लिया था।
अत्रि ऋषि को हिन्दू सनातन धर्म-शास्त्र, पद्धति एवं ज्ञान और कर्म से संबंधित शास्त्र और कथाओं के रचयिता, तथा खगोल शास्त्र के जन्मदाता के रूप में भी जाना जाता है। उनकी पत्नी माता सती अनुसुईया भी एक महान तपस्विनी और पवित्र महिला थीं।
अत्रि ऋषि का खगोलशास्त्र
अत्रि ऋषि को खगोल शास्त्र का जनक माना जाता है। उन्होंने अपनी तपस्या और ध्यान के माध्यम से ब्रह्मांड के कार्य और ग्रहों की गति को समझा तथा ग्रहों की स्थिति और उनकी परिक्रमा संबंधी गतिविधिओं का अध्ययन भी किया, मुख्य रूप से अत्रि ऋषि ने सूर्य, चंद्रमा, और अन्य ग्रहों की स्थिति और उनके प्रभाव का अध्ययन किया।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, महर्षि अत्रि ने ग्रहों के बारे में शोध करके असीम ज्ञान अर्जित किया था। महर्षि अत्रि को तारामण्डल और ग्रहण के बारे में भी बहुत अधिक जानकारी थी। ऋग्वेद के अनुसार, महर्षि अत्रि ने ग्रहण पर शोध करके ग्रहण से जुड़े कई रहस्य के बारे में बताया था। उन्होंने खगोल शास्त्र के कई रहस्यों से पर्दा भी उठाया था।
महर्षि अत्रि, ग्रहण के बारे में कहा जाता है कि उन्हें सबसे पहले ग्रहण संबंधी ज्ञान हुआ. ऋग्वेद के अनुसार ऋषि अत्रि और उनके परिवार को ग्रहण का बेहतर ज्ञान था. महर्षि अत्रि ने फिर ग्रहण का ज्ञान बाकी लोगों को दिया. उन्होंने खगोल शास्त्र के रहस्य खोले. आसमान में टिमटिमाते तारों से लेकर अज्ञात ग्रहों तक के अध्ययन में वो समय से बहुत आगे थे.
उनके खगोलीय गणना संबंधी ज्ञान के योगदान से ही हिन्दू धर्म के पंचांग का विकास और ग्रहों की गति को मापने की प्रणाली विकसित हुई।
महाभारत युद्ध की शुरुआत ग्रहण के समय हुई थी. इसी युद्ध में आखिरी दिन भी ग्रहण था. इसके साथ ही युद्ध के बीच में एक सूर्यग्रहण और हुआ था. तीन ग्रहण होने से महाभारत का भीषण युद्ध हुआ. जब कृष्ण ने जयद्रथ का वध किया था, तब भी सूर्यग्रहण ही पड़ा था.
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, एक साल में तीन या उससे अधिक ग्रहण शुभ नहीं माने जाते हैं. ऐसा होने पर प्राकृतिक आपदाएं और सत्ता परिवर्तन देखने को मिलता है. ग्रहण से देश में रहने वाले लोगों को नुकसान होता है. बीमारियां बढ़ती हैं. देश की आर्थिक स्थिति में उतार-चढ़ाव आते हैं.
अत्रि ऋषि को सूर्य सिद्धांत का रचयिता माना जाता है, जो खगोल शास्त्र का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
माता सती अनुसुईया की कठिन परीक्षा
ऋषि अत्रि और माता अनुसुईया का दाम्पत्य जीवन बहुत सहज भाव के साथ व्यतीत हो रहा था। देवी अनुसुईया जी की पतिव्रता के आगे मनुष्य और देव सभी नतमस्तक हुआ करते थे। एक बार नारद मुनि के जरिए देवी लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती को ऋषि अत्रि की पत्नी अनुसुईया के दिव्य पतिव्रत के बारे में ज्ञात होता है तो वह उनकी परीक्षा लेने का विचार करती हैं और तीनों देवियां अपने पतियों को माता अनुसुईया के पतिव्रत की परीक्षा लेने को कहती हैं।
तीनों देवियां की जिद्द के आगे विवश होकर त्रिदेव अपने रूप बदलकर एक साधु रूप में ऋषि अत्रि के आश्रम जाते हैं और माता अनुसुईया से भिक्षा की मांग करते हैं। साथ में एक शर्त भी रखते हैं कि भिक्षा निर्वस्त्र होकर देनी पड़ेगी। देवी अनुसुईया जी ने अपने तपोबल से त्रिदेवों को पहचान लिया और अपने हाथ में जल लेकर संकल्प द्वारा तीनों देवों को शिशु रूप में परिवर्तित कर देती हैं और तब उन्हें भिक्षा देती हैं और माता की तरह स्तनपान भी कराती हैं।
इस प्रकार तीनों देवता ऋषि अत्रि के आश्रम में बालक रूप में रहने लगते हैं और देवी अनुसुईया माता की तरह उनकी देखभाल करती हैं कुछ समय बाद जब त्रिदेवियाँ को इस बात की जानकारी होती है तो वह अपने पतियों को पुन: प्राप्त करने हेतु ऋषि अत्रि के आश्रम में आती हैं और अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करती हैं। देवियों की याचना स्वीकार करते हुए और ऋषि अत्रि के कहने पर माता अनुसुईया त्रिदेवों को मुक्त कर देती हैं। अपने स्वरूप में आने पर तीनों देव ऋषि अत्रि व माता अनुसुईया को वरदान देते हैं कि वह उनके घर पुत्र रूप में जन्म लेंगे और त्रिदेवों के अंश रूप में दत्तात्रेय, दुर्वासा और सोम रूप में उत्पन्न हुए।
अत्रि ऋषि का जीवन
पुराणों के अनुसार अत्रि ऋषि ब्रह्मा जी के नेत्रों से उत्पन्न हुए थे। ऋषि अत्रि ने कर्दम ऋषि की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था जो एक महान पतिव्रता के रूप में विख्यात हुईं। ऋषि अत्रि ने पुत्रोत्पत्ति के लिए ऋक्ष पर्वत पर पत्नी अनुसूया के साथ घोर तप किया था, अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप भगवान विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, सृष्टि के रचनाकार ब्रह्मा जी के अंश से चन्द्र देव और भगवान शिव के अंश से दुर्वासा महर्षि का अत्रि एवं देवी माता अनुसुईया के पुत्र के रूप में जन्म हुआ। अत्रि त्याग, तपस्या और संतोष के गुणों से युक्त एक महान ऋषि हुए।
अत्रि दो वर्णों से बना है ‘अ+त्रि अर्थात् वे तीनों गुणों (सत्व, रजस, तमस) से अतीत है, गुणातीत हैं। इस प्रकार महर्षि अत्रि-दम्पति अपने नामानुरूप जीवन यापन करते हुए सदाचार परायण होकर चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। अत्रि पत्नी अनुसुईया के तपोबल से ही भागीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और ‘मंदाकिनी’ नाम से प्रसिद्ध हुई। सृष्टि के प्रारम्भ में जब इन दम्पति को ब्रह्मा जी ने सृष्टि वर्धन की आज्ञा दी तो इन्होंने उस ओर उन्मुख न होकर तपस्या का ही आश्रय लिया।
अत्रि ऋषि के योगदान में वेदों का ज्ञान का प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण माना जाता है, उनके इस योगदान के कारण वेदों को व्यवस्थित रूप में संरक्षित किया गया। अत्रि ऋषि ने धर्म, तपस्या, और भक्ति का संदेश दिया। उनका जीवन आदर्श जीवन जीने का मार्गदर्शन करता है।
ऐसा माना जाता है कि, अत्रि ऋषि की आयु हजारों वर्षों की थी, उनकी तपस्या और ज्ञान का प्रभाव युगों तक रहा।
अत्रि ऋषि का वंश, अत्रेय कुल कहा जाता है। अत्रि गोत्र, ब्राह्मणों का एक गोत्र है. यह गोत्र अत्रि ऋषि से जुड़ा है. अत्रि गोत्र के लोग उत्तर भारत, नेपाल, राजस्थान, मध्य प्रदेश, और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं. अत्रि गोत्र के कुछ और नाम अत्रे, आत्रे, और आत्रेय भी हैं.
पंडित रामचंद्र जोशी के अनुसार अपाला महर्षि अत्रि की एकमात्र पुत्री थीं. वह इतनी बुद्धिमान थीं कि वेदों की ऋचाएं एक बार पढ़कर ही कंठस्थ याद कर लेती. चारों वेदों को याद कर वह जल्द ही वेदज्ञ हो गई थी.
अत्रि ऋषि की पुत्री अपाला
ऋग्वेद में ऋषि कन्या अपाला की कथा बहुत प्रसिद्ध है. यह ऋषि अत्रि की एकमात्र कन्या थी, जो चर्म रोग से पीड़ित थीं. इस रोग के बढऩे पर उसके पति उससे घृणा करने लगे थे. ये देख उसने पिता के आश्रम में लौटकर तप व वेद मंत्रों की रचना की. जिससे प्रसन्न होकर देवराज इंद्र ने उसका रोग दूर कर सुंदरता प्रदान की. आइए आज आपको उसी अपाला की पूरी कथा बताते हैं.
अपाला महर्षि अत्रि की एकमात्र पुत्री थीं. वह इतनी बुद्धिमान थीं कि वेदों की ऋचाएं एक बार पढ़कर ही कंठस्थ याद कर लेती. चारों वेदों को याद कर वह जल्द ही वेदज्ञ हो गई थी. पर अपाला बचपन से त्वचा रोग से पीड़ित थीं. इसकी वजह से अत्रि ऋषि को उसके विवाह को लेकर चिंता सताने लगी. इसी बीच एक दिन कृशाश्व नाम के ऋषि अत्रि के आश्रम आए. जिन्होंने अपाला से विवाह करना स्वीकार कर लिया. विवाह के बाद दोनों सुख से रहने लगे थे. पर धीरे- धीरे अपाला का चर्म रोग बढऩे लगा. इससे कृशाश्व उससे घृणा करने लगे. ये देख अपाला वापस अपने पिता के आश्रम में लौट आई.
अपाला ने ऋषि अत्रि के कहने पर तप करते हुए देवराज इंद्र के प्रशस्ति मंत्रों की रचना की. इससे प्रभावित होकर देवराज इंद्र ने उसे दर्शन दिया. जब इंद्र प्रगट हुए तो अपाला ने सोम की बेल को दांतों से दबाकर उसका रस निकालकर उन्हें पिलाया. इससे देवराज ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा. अपाला ने चर्म रोग रहित सौंदर्य का वरदान मांग लिया. इस पर देवराज इंद्र ने उसका चर्म रोग दूर कर उसे आकर्षक बना दिया. उधर, अपाला के जाने के बाद से कृशाश्व को भी अपनी गलती का अहसास हुआ. पश्चाताप करते हुए वे फिर ऋषि अत्रि के आश्रम में उसे लेने पहुंचे. अपनी पत्नी को नए रूप में प्राप्त कर वे बहुत खुश हुए.
अश्विनीकुमारों की कृपा
पुराणों के अनुसार ऋषि अत्रि को अश्विनीकुमारों की कृपा प्राप्त थी। एक बार जब महर्षि अत्रि समाधिस्थ थे, तब दैत्यों ने उन्हें उठाकर शत द्वार यंत्र में डाल दिया और जलाने का प्रयत्न कर रहे थे, परंतु समाधि में होने के कारण उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता था, तभी उचित समय पर अश्विनी कुमार वहाँ पहुँचकर ऋषि अत्रि को उन दैत्यों के चंगुल से बचाते हैं यही कथा ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में भी बताई गई है। ऋग्वेद के दशम मण्डल में अत्रि ऋषि के तपस्या और अनुष्ठान के बारे में भी चर्चा है। साथ में ये भी बताया गया है कि अश्विनीकुमारों ने अत्रि ऋषि को यौवन प्रदान किया था।
ऋग्वेद के पंचम मण्डल में वसूयु, सप्तवध्रि को ऋषि अत्रि का पुत्र बताया गया है। ऋग्वेद के पंचम ‘आत्रेय मण्डल′, ‘कल्याण सूक्त’ ऋग्वेदीय ‘स्वस्ति-सूक्त’ की रचना महर्षि अत्रि द्वारा रचित है। यह सूक्त मांगलिक कार्यों, शुभ संस्कारों और पूजा, अनुष्ठानों में पठित होते हैं। इन्होंने अलर्क, प्रह्लाद आदि को शिक्षा भी दी थी।
अत्रि ऋषि का वंश और कुल
अत्रि ऋषि का जन्म ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में हुआ था। वह ब्रह्मा जी के तीन पुत्रों में से एक हैं और अत्रेय कुल के संस्थापक माने जाते हैं। अत्रि ऋषि का जन्म ब्रह्मा जी की इच्छा से हुआ। उनका नाम ‘अत्रि’ इसलिए रखा गया क्योंकि उन्होंने त्रिगुणों (सत्व, रजस, तमस) का परित्याग किया था।
उन्होंने अपनी तपस्या के माध्यम से ब्रह्मांड के कई रहस्यों को प्रतिपादित किया और मानव कल्याण के लिए उसका प्रचार प्रसार भी किया। तीनों देवों , ब्रम्हा, विष्णु और महेश (शिव) से पुत्र के रूप में जन्म लेंए का वरदान प्राप्त कर अत्रि ऋषि और माता सती अनुसुईया के तीन पुत्र हुए, चंद्रदेव (ब्रम्हाजी के अवतार), दत्तात्रेय (विष्णु जी के अवतार), दुर्वासा ऋषि (शिवजी के अवतार)।
अत्रि ऋषि भारतीय संस्कृति और धर्म के महान ऋषियों में से एक थे। उनके जीवन और योगदान ने भारतीय समाज को ज्ञान, विज्ञान, और धर्म के क्षेत्र में समृद्ध किया। खगोल शास्त्र, वेद, और आयुर्वेद में उनके योगदान को सदियों तक याद रखा जाएगा।