वृंदावन का बांके बिहारी मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर में कृष्णजी की मूर्ति बांके बिहारी जू के रूप में स्थापित है।
बांके बिहारी मंदिर के आश्चर्यपूर्ण तथ्य
- बांके बिहारी मंदिर का निर्माण स्वामी हरिदास जी, जो एक कृष्ण भक्त कवि, शास्त्रीय संगीतकार तथा कृष्णोपासक सखी संप्रदाय के प्रवर्तक थे। इन्हें ललिता सखी का अवतार माना जाता है। वे वैष्णव भक्त थे तथा उच्च कोटि के संगीतज्ञ भी थे, ने करवाया था.
- इस मंदिर में घंटियों नहीं है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि, भगवान श्री कृष्ण यहाँ बाल स्वरूप में विराजमान हैं और वह घंटी की आवाज से चौंक सकते हैं।
- मंदिर में थोड़ी-थोड़ी देर पर पर्दा किया जाता है, इसके पीछे एक कथा है, उस कथा के अनुसार एक बार बाल स्वरूप कृष्ण जी एक भक्त के साथ मंदिर से चले गए थे , और फिर बहुत मान मनौवल (अनुनय-विनय) करने के बाद ही बिहारी जी वापस मंदिर में आए। इस घटना के बाद, यह डर बना रहा कि कहीं भगवान बांके बिहारी किसी और भक्त के प्रेम से फिर से आकर्षित होकर उनके पीछे न चले जाएं. इसी वजह से मंदिर में हर दो मिनट पर भगवान के आगे पर्दा डालने की परंपरा शुरू की गई, ताकि भक्त उनके रूप को लंबे समय तक न निहार सकें।
- अक्षय तृतीय पर चरण दर्शन, प्राकट्य उत्सव, गर्मियों में फूल बंगला की सेवा की जाती है.
- ठाकुरजी के दर्शन के बाद यहां की गलियों में बनी दुकानों से लोग पेड़े का प्रसाद लेते हैं और चाट-लस्सी का मज़ा लेते हैं, माना जाता है कि बाल स्वरूप कृष्ण भी ऐसा ही करते हैं।
वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर का महत्व
वृंदावन स्थित बांके बिहारी मंदिर भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्तों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान है। यह मंदिर ठाकुर जी के रसमयी स्वरूप और उनके विशेष पूजा-पाठ के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर में भक्तों का ऐसा मानना है कि बांके बिहारी स्वयं ही अपनी आरती और सेवा का चयन करते हैं।
अधिकांश मंदिरों में मंगला आरती, यानी प्रातः काल की आरती, भगवान को जगाने के साथ की जाती है। लेकिन बांके बिहारी मंदिर में मंगला आरती नहीं होती। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि बांके बिहारी को नंदलाल यानी बाल स्वरूप में पूजा जाता है। मंदिर की परंपरा के अनुसार, बाल स्वरूप के ठाकुर जी को भोर में उठाना उनके आराम में बाधा उत्पन्न करता है। इसीलिए भगवान को आराम देने के लिए मंगला आरती नहीं की जाती।
वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर की विशेष परंपराएं
- दोपहर की आरती: बांके बिहारी मंदिर में ठाकुर जी की सेवा और दर्शन का समय दोपहर से शुरू होता है।
- भक्त और भगवान का संबंध: इस मंदिर की परंपरा में भक्त और भगवान के बीच एक अनोखा सजीव संबंध स्थापित होता है।
- दर्शन की पद्धति: यहां के दर्शन पर्दों के माध्यम से किए जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि भगवान के सजीव और रसमयी दर्शन से भक्त मोहित होकर चेतना खो सकते हैं।
वृंदावन के बांके बिहारी के मंगला आरती के पीछे की कहानी
पौराणिक कथाओं के अनुसार, वृंदावन में श्री हरिदास जी ने निधिवन में भगवान कृष्ण के बाल स्वरूप का आवाहन किया। यह स्थान स्वयं प्रेम और भक्ति की सजीव ऊर्जा का केंद्र है। भगवान कृष्ण ने बाल रूप में यहां प्रकट होकर अपने भक्तों को दर्शन दिए। तब से ठाकुर जी को बाल स्वरूप में पूजा जाता है।
एक और मान्यता है कि ठाकुर बांके बिहारी जी आज भी निधिवन राज मंदिर में हर रात को आते हैं और श्री राधा जी व सखियों के साथ रास लीला रचाते हैं। और इस लीला के बाद थक हार कर ठाकुर जी अपने वृंदावन स्थित बांके बिहारी मंदिर में पहुंचकर तीसरे पहर पर विश्राम करते हैं।
ठाकुर बांके बिहारी मंदिर के सेवायतों का कहना है कि रात भर रासलीला करने के बाद जब वे तीसरे पहर पर मंदिर में विश्राम करने पहुंच जाते हैं, तो उस समय वह काफी थके हुए होते है। ऐसे में उन्हें अपनी नींद भी पूरी करनी होती है इसीलिए उन्हें मंगला आरती के समय उठाया नहीं जाता है जब सुबह बांके बिहारी विश्राम करने के बाद उठते हैं तब उनका श्रृंगार किया जाता है. और उसके बाद वह भक्तों को दर्शन देते हैं और उस समय जो आरती होती है उसे श्रृंगार आरती कहा जाता है।
बांके बिहारी मंदिर की परंपराएं भक्तों को यह सिखाती हैं कि भगवान का प्रेम और सेवा सबसे बड़ा उद्देश्य है। इस मंदिर में मंगला आरती का न होना हमें यह भी सिखाता है कि भगवान का आराम और उनकी इच्छा का सम्मान करना भक्ति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर से जुड़ी मान्यताएं
- भगवान की स्वयं सेवा: यहां ठाकुर जी की सेवा भक्तों के हाथों नहीं, बल्कि उनकी अपनी इच्छा से होती है।
- विशेष त्योहारों का महत्व: होली, जन्माष्टमी, और शरद पूर्णिमा जैसे त्योहारों के दौरान यहां की सजावट और पूजा विशेष रूप से भव्य होती है।
- मंदिर में दर्शन का समय: प्रातः नहीं, बल्कि दोपहर से दर्शन शुरू होते हैं।
- ब्रजवासियों के अनुसार, कहा जाता है कि यदि भक्त भक्ति में लीन होकर उनकी आंखों में देख ले तो बांके बिहारी भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए कोई भी नियम तोड़ देते हैं।
- बांके बिहारी मंदिर की मूर्ति की कहानी बहुत प्रसिद्ध है, ऐसी मान्यता है कि स्वामी हरिदास जी की प्रार्थना से ही बांके बिहारी की मूर्ति प्रकट हुई थी।
- बांके बिहारी जी, राधा कृष्ण का ही मिलाजुला स्वरूप हैं।
- बांके बिहारी की पूजा मूल रूप से स्वामी हरिदास ने कुंजबिहारी नाम से की थी लेकिन उनके शिष्यों ने प्रतिमा की त्रिभंग मुद्रा के कारण इनकी बांके बिहारी जी के नाम से पूजा की।
- बांके का अर्थ होता है टेढ़ा और बिहारी का अर्थ है युवक। वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण त्रिभंगी मुद्रा में खड़े हुए है, वह टेढ़ा ही मोरपंख लगाते हैं, हाथ में लाठी भी टेढ़ी रखते हैं और नटखट हैं और सीधा भी नहीं चलते, श्रीराधा के पीछे टेढ़े-टेढ़े चलते हैं, इसीलिए भक्त उन्हे बांके बिहारी कहते हैं।
- प्राचीन समय में बांके बिहारी की पूजा निधिवन में स्वामी हरिदास जी द्वारा की जाती थी।
- वृंदावन में स्थित श्री बांके बिहारी जी मंदिर में जिस काले रंग के पत्थर क मूर्ति की पूजा होती है वो मूर्ति किसी भी शिल्पकार या हाथो द्वारा नही बनाई गई है,बल्कि वह मूर्ति वहाँ स्वामी हरिदास जी की कृष्ण भक्ति के कारण प्रकट हुई थी। स्वामी हरिदास की भगवान श्री कृष्ण के लिए अपार भक्ति थी जिसके परिणाम स्वरूप श्री कृष्ण जी ने काले पत्थर के स्वरूप में निधिवन में प्रकट हुए थे।
- कहा जाता है कि एक दिन जब स्वामी हरिदास जी भक्ति और प्रेम में डूबकर निधिवन में कृष्ण भजन गा रहे थे, तब राधा और कृष्ण जी, उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं उनके सामने प्रकट हुए। संत हरिदास जी ने जब भगवान का यह दिव्य रूप देखा, तो उनसे प्रार्थना की कि वे एक रूप में प्रकट होकर हमेशा भक्तों के बीच रहें।
बांके बिहारी मंदिर में मंगला आरती न होने के पीछे भगवान के बाल स्वरूप की विशिष्टता और उनके आराम का सम्मान है। यह परंपरा भक्तों को यह सिखाती है कि भक्ति केवल पूजा तक सीमित नहीं है, बल्कि भगवान की इच्छाओं का आदर करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।