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Friday, July 4, 2025

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भारतरत्न नानाजी देशमुख जिन्होंने समाज को नई दिशा दी

भारतरत्न नानाजी देशमुख का पर नाम चंडिकादास अमृतराव देशमुख था। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उन्हें मोरारजी-मन्त्रिमण्डल में शामिल किया गया परन्तु उन्होंने यह कहकर कि 60 वर्ष से अधिक आयु के लोग सरकार से बाहर रहकर समाज सेवा का कार्य करें, मन्त्री-पद ठुकरा दिया।

भारतरत्न नानाजी देशमुख जीवन पर्यन्त दीनदयाल शोध संस्थान के अन्तर्गत चलने वाले विविध प्रकल्पों के विस्तार हेतु कार्य करते रहे। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। अटलजी के कार्यकाल में ही भारत सरकार ने उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य व ग्रामीण स्वालम्बन के क्षेत्र में अनुकरणीय योगदान के लिये पद्म विभूषण भी प्रदान किया। 2019 में उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया गया।

नानाजी का जन्म महाराष्ट्र के कडोली नामक छोटे से गाँव में हुआ था। नानाजी का घटनापूर्ण जीवन अभाव और संघर्षों में बीता। उन्होंने छोटी उम्र में उनके माता-पिता का निर्धन हो गया था , जिसके कारण उनका बचपन अभावों में बीता यहाँ तक कि, स्कूल का शुल्क और पुस्तकें खरीदने तक के लिये पैसे नहीं रहते थे, परन्तु शिक्षा और ज्ञानप्राप्ति की चाह के चलते उन्होंने उन्होंने सब्जी बेचकर या अन्य छोटे कार्य करके शिक्षा ली। 1930 दशक में वे आरएसएस में शामिल हो गये। भले ही उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान और उत्तरप्रदेश  रहा। उनकी श्रद्धा देखकर आर.एस.एस. सरसंघचालक श्री गुरू जी ने उन्हें प्रचारक के रूप में गोरखपुर भेजा। बाद में उन्हें बड़ा दायित्व सौंपा गया और वे उत्तरप्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने।

1947 में, आर.एस.एस. ने राष्ट्रधर्म और पाञ्चजन्य नामक दो साप्ताहिक और स्वदेश (हिन्दी समाचारपत्र) निकालने का फैसला किया। अटल बिहारी वाजपेयी को सम्पादन, दीन दयाल उपाध्याय को मार्गदर्शन और नानाजी को प्रबन्ध निदेशक की जिम्मेदारी सौंपी गयी। 1948 में गान्धीजी की हत्या के बाद काँग्रेस ने आर.एस.एस. पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, जिससे इन प्रकाशन कार्यों पर व्यापक असर पड़ा। फिर भी भूमिगत होकर इनका प्रकाशन कार्य जारी रहा।

जनता के दबाब में काँग्रेस पार्टी की सरकार को आर.एस.एस. से प्रतिबन्ध हटाना पड़ा। तब सभी विचारकों ने एक राजनीतिक संगठन के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना का फैसला किया। और जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ बनाने की घोषणा की तो आरएसएस के सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने उनसे वादा किया कि मैं पार्टी चलाने के लिए आपको ‘पाँच सोने के टुकड़े’ दूँगा.

इस वादे के तहत पाँच आरएसएस नेताओं को नई पार्टी की मदद के लिए भेजा गया. ये नेता थे दीनदयाल उपाध्याय, सुंदर सिंह भंडारी, बापूसाहेब सोहनी, बलराज मधोक और नानाजी देशमुख.

नानाजी को उत्तरप्रदेश में भारतीय जन संघ का महासचिव बनाया और उनके जमीनी कार्य ने उत्तरप्रदेश में पार्टी को स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी। 1957 तक जनसंघ ने उत्तरप्रदेश के सभी जिलों में अपनी इकाइयाँ खड़ी कर लीं। इस दौरान नानाजी ने पूरे उत्तरप्रदेश का दौरा किया जिसके परिणामस्वरूप जल्द ही भारतीय जनसंघ उत्तरप्रदेश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गयी। जनसंघ के कार्यकर्ताओं पर नानाजी की गहरी पकड़ थी। 1957 में रामपुर उत्तर प्रदेश के कार्यकर्ता राम प्रकाश सर्राफ ने जब मुस्लिम नबाब के दबाव के बावजूद जनसंघ के उम्मीदवार को चुनाव लड़ाने का निर्णय लिया तो नाना जी ने इसकी प्रशंसा की तथा कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाया।

उनके प्रयास से उत्तर प्रदेश में भारतीय जनसंघ के विधायकों की संख्या 1957 में 14 बढ़कर 1967 में 100 हो गई.

उत्तरप्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि, अटल बिहारी वाजपेयी के वक्तृत्व और नानाजी के संगठनात्मक कार्यों के कारण भारतीय जनसंघ महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति बन गया।

आपातकाल हटने के बाद चुनाव हुए, जिसमें बलरामपुर लोकसभा सीट से नानाजी सांसद चुने गये। उन्हें पुरस्कार के तौर पर मोरारजी मंत्रिमंडल में बतौर उद्योग मन्त्री शामिल होने का न्यौता भी दिया गया, लेकिन नानाजी ने साफ़ इनकार कर दिया। उनका सुझाव था कि साठ साल से अधिक आयु वाले सांसद राजनीति से दूर रहकर संगठन और समाज कार्य करें।

उन्होंने सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर आदर्श की स्थापना की और अपना पूरा जीवन सामाजिक और रचनात्मक कार्यों में लगा दिया। वे आश्रमों में रहे और कभी अपना प्रचार नहीं किया। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की और उसमें रहकर समाज-सेवा की।

1989 में वे पहली बार चित्रकूट आये और अन्तिम रूप यहीं बस गये। उन्होंने भगवान श्रीराम की कर्मभूमि चित्रकूट की दुर्दशा देखी। वे मंदाकिनी के तट पर बैठ गये और अपने जीवन काल में चित्रकूट को बदलने का फैसला किया। चूँकि अपने वनवास-काल में राम ने दलित जनों के उत्थान का कार्य यहीं रहकर किया था, अत: इससे प्रेरणा लेकर नानाजी ने चित्रकूट को ही अपने सामाजिक कार्यों का केन्द्र बनाया। उन्होंने सबसे गरीब व्यक्ति की सेवा शुरू की। वे अक्सर कहा करते थे कि उन्हें राजा राम से वनवासी राम अधिक प्रिय लगते हैं अतएव वे अपना बचा हुआ जीवन चित्रकूट में ही बितायेंगे। ये वही स्थान है जहाँ राम ने अपने वनवास के चौदह में से बारह वर्ष गरीबों की सेवा में बिताये थे। उन्होंने अपने अन्तिम क्षण तक इस प्रण का पालन किया। उनका निधन भी चित्रकूट में ही रहते हुए 27 फ़रवरी 2010 को हुआ।

नानाजी देशमुख ने 95 साल की उम्र में चित्रकूट में भारत के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय (जिसकी स्थापना उन्होंने खुद की थी) में रहते हुए अन्तिम साँस ली। नानाजी देश के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपना शरीर छात्रों के मेडिकल शोध हेतु दान करने का वसीयतनामा (इच्छा पत्र) मरने से काफी समय पूर्व 1997 में ही लिखकर दे दिया था, जिसका सम्मान करते हुए उनका शव अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली को सौंप दिया गया।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की संकल्पना एकात्म मानववाद को मूर्त रूप देने के लिये नानाजी ने 1972 में दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की। उपाध्याय जी का यह दर्शन, समाज के प्रति मानव की समग्र दृष्टि पर आधारित है जो भारत को आत्मनिर्भर बना सकता है।

नानाजी देशमुख ने एकात्म मानववाद के आधार पर ग्रामीण भारत के विकास की रूपरेखा बनायी। शुरुआती प्रयोगों के बाद उत्तरप्रदेश के गोंडा और महाराष्ट्र के बीड जिलों में नानाजी ने गाँवों के स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा, कृषि, आय, अर्जन, संसाधनों के संरक्षण व सामाजिक विवेक के विकास के लिये एकात्म कार्यक्रम की शुरुआत की। पूर्ण परिवर्तन कार्यक्रम का आधार लोक सहयोग और सहकार है।

चित्रकूट परियोजना या आत्मनिर्भरता के लिये अभियान की शुरुआत 26 जनवरी 2005 को चित्रकूट में हुई जो उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है।

दूसरे दलों से गठबंधन के लिए पहल

नानाजी देशमुख के जीवनीकार मनोज कुमार मिश्र अपनी किताब ‘नानाजी देशमुख एक महामानव’ में लिखते हैं, “नानाजी ने अपने व्यवहार से दूसरे दलों के प्रमुख नेताओं से अपने संबंध बेहतर बना लिए थे. पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, डाक्टर संपूर्णानंद, चौधरी चरण सिंह से लेकर समाजवादी दिग्गज राम मनोहर लोहिया इनमें प्रमुख नाम थे.”

डॉक्टर लोहिया संघ के विरोधी थे इसलिए उन्होंने नानाजी से दूरी बनाने के प्रयास किए, लेकिन नानाजी के व्यवहार ने न केवल उनको उनका करीबी बनाया बल्कि सन 1963 के फ़र्रुख़ाबाद लोकसभा उप-चनाव में लोहिया की जीत सुनिश्चित करने के लिए जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने अपनी पूरी ताकत लगा दी.”

डॉ॰ राम मनोहर लोहिया से उनके अच्छे सम्बन्धों ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। एक बार नानाजी ने डॉ॰ लोहिया को भारतीय जनसंघ कार्यकर्ता सम्मेलन में बुलाया, जहाँ लोहिया जी की मुलाकात दीन दयाल उपाध्याय से हुई। दोनों के जुड़ाव से भारतीय जनसंघ समाजवादियों के करीब आया और दोनों ने मिलकर कांग्रेस के कुशासन का पर्दाफाश किया।

1967 में उत्तरप्रदेश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन में विभिन्न राजनीतिक दलों को एकजुट करने में नानाजी जी का योगदान अद्भुत रहा।

नानाजी, विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए। दो महीनों तक वे विनोबाजी के साथ रहे। वे उनके आन्दोलन से अत्यधिक प्रभावित हुए। जेपी आन्दोलन में जब जयप्रकाश नारायण पर पुलिस ने लाठियाँ बरसायीं उस समय नानाजी ने जयप्रकाश को सुरक्षित निकाल लिया। इस दुस्साहसी कार्य में नानाजी को चोटें आई और इनका एक हाथ टूट गया।

नानाजी देशमुख की पहल से ही जनसंघ ने अपनी नीति में परिवर्तन करते हुए दूसरे दलों से चुनाव पूर्व गठबंधन किए. इसका नतीजा ये रहा कि 1967 के चुनाव के बाद जनसंघ ने संयुक्त विधायक दल का सदस्य बनकर कई राज्यों में सरकार में भागीदारी की.

नानाजी देशमुख का जन्म 11 अक्तूबर, 1916 को महाराष्ट्र के परभणी ज़िले के कडोली गाँव में हुआ था. डॉक्टर हेडगेवार से प्रभावित होकर वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य बने. उनकी पढ़ाई पिलानी के बिड़ला कॉलेज में भी हुई थी।

वहाँ पर उन्होने संघ के प्रचार का काम शुरू किया. कॉलेज के संस्थापक घनश्याम दास बिड़ला ने उन्हें भोजन-आवास की सुविधा के अलावा 80 रुपए महीने पर अपना सहयोगी बनाने का प्रस्ताव दिया लेकिन नानाजी ने संघ के काम को प्राथमिकता देते हुए उस प्रस्ताव को नहीं माना.

उन्होंने कभी शादी नहीं की. नानाजी की ख़ासियत थी समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों के साथ उनका आत्मीय संपर्क. कूमी कपूर अपनी किताब ‘द इमरजेंसी अ पर्सनल हिस्ट्री’ में लिखती हैं, “नानाजी को जनसंघ और आरएसएस के सदस्यों के साथ उनके बीबी बच्चों तक के नाम याद थे. उन्होंने विनोबा भावे के भूदान आँदोलन में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था.”

पार्टी के लिए धन इकट्ठा करने में नानाजी की भूमिका

जनसंघ के लिए धन इकट्ठा करने में नानाजी देशमुख की बड़ी भूमिका थी.

विनय सीतापति अपनी किताब ‘जुगलबंदी, द बीजेपी बिफ़ोर मोदी’ में लिखते हैं, “नानाजी की ख़ासियत थी उनकी ईमानदारी. वो इस हद तक ईमानदार थे कि पार्टी उन्हें अकेले चंदा लेने भेजती थी. एनएम घटाटे ने मुझे बताया था, उनके बाद पार्टी दो लोगों के चंदा लेने भेजने लगी ताकि बेइमानी की कोई गुंजाइश नहीं रहे.”

सत्तर के दशक से ही नानाजी टाटा, मफ़तलाल और नुस्ली वाडिया जैसे उद्योगपतियों के संपर्क में आ गए थे. नुस्ली वाडिया से तो वो साठ के दशक से ही संपर्क में आ गए थे.

सीतापति लिखते हैं, “नुस्ली ने ही उन्हें जेआरडी टाटा से मिलवाया था. नुस्ली वाडिया ने ही सबसे पहले जनसंघ के अख़बार ‘मदरलैंड’ में ‘बॉम्बे डाइंग’ के विज्ञापन देने शुरू किए थे.”

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में नानाजी पर हमला

साल 2019 में तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने नानाजी देशमुख को मरणोपरांत सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा था, तस्वीर में दीनदयाल रिसर्च इंस्टिट्यूट के चेयरमैन वीरेंद्रजीत सिंह ये सम्मान ग्रहण कर रहे हैं

सन 1974 में हुए बिहार आंदोलन में नानाजी देशमुख की सक्रिय भूमिका थी. उनके संगठनात्मक गुणों को देखते हुए जयप्रकाश नारायण ने उन्हें लोक संघर्ष समिति का सचिव नियुक्त किया.

3 से 5 अक्तूबर, 1974 को बिहार बंद करवाया गया. इस बंद को सफल कराने के लिए नानाजी ने पूरे बिहार का दौरा किया.

जेपी ने 4 नवंबर को बिहार विधानसभा के घेराव की घोषणा की लेकिन काँग्रेस सरकार के आदेश पर नानाजी को पुलिस ने 30 अक्तूबर को ही सासाराम में बिहार निष्कासन का आदेश पकड़ा दिया था।

मनोज कुमार मिश्र लिखते हैं, “नानाजी डाकिए के वेश में आरएमएस के डिब्बे में पटना पहुंचे और बचते-बचाते गाँधी मैदान में जयप्रकाश नारायण की छाया की तरह चलने लगे। इस बीच एक सीआरपीएफ़ के जवान की लाठी जयप्रकाश नारायण के सिर पर पड़ने ही वाली थी कि नानाजी कूद कर सामने आ गए और उन्होंने लाठी का वार अपने हाथों पर ले लिया जिससे उनके हाथ की हड्डी टूट गई, लेकिन जयप्रकाश नारायण बच गए। जयप्रकाश नारायण इस बीच गिर गए, और उनका सिर्फ़ पैर ज़ख़्मी हुआ.”

इमरजेंसी में हुए अंडरग्राउंड

25 जून, 1975 को रामलीला मैदान में विपक्षी नेताओं की रैली के बाद जब नानाजी देशमुख अपने घर लौट रहे थे तो उनके पास एक गुमनाम फ़ोन आया.

फ़ोन करने वाले ने उन्हें आगाह किया कि उस रात वो अपने घर पर न सोएं, वर्ना उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाएगा. इससे पहले कि वो और विवरण माँगते फ़ोन करने वाले ने फ़ोन रख दिया.

कूमी कपूर लिखती हैं, “उन्होंने वो रात अपने शिष्य डॉक्टर जेके जैन के वीपी हाउस के फ़्लैट पर बिताई. सुबह-सुबह वो जेपी से मिलने पालम हवाई अड्डे निकल गए जहाँ से जेपी पटना वापस जाने वाले थे.

वहाँ पर एक शख़्स ने नानाजी को पहचान लिया. उसने उनसे पूछा, जेपी को गिरफ़्तार कर लिया गया है. आप को अब तक हिरासत में क्यों नहीं लिया गया? नानाजी तुरंत वीपी हाउस लौटे आए और उन्होंने डाक्टर जैन को जगाकर कहा, हमें यहाँ से तुरंत निकलना है.

कूमी कपूर लिखती हैं, “उसी समय उनके पास मदनलाल खुराना का फ़ोन आया जिन्होंने कहा कि उन्हें तुरंत भूमिगत हो जाना चाहिए. इसके बाद नानाजी देशमुख लगातार घर बदलते रहे और एक स्थान पर एक दिन से अधिक नहीं रुके.”

नानाजी देशमुख की गिरफ़्तारी

नानाजी देशमुख एक उद्योगपति की दी गई सफ़ेद फ़िएट कार पर पूरे देश में घूम-घूम कर काँग्रेस सरकार की इमरजेंसी में किए जा रहे अत्याचार और जन विरोधी नीतियों को जनता के सामने रखते रहे। वह कार से दिल्ली से बंबई गए जहाँ उन्होंने अपने पुराने मित्रों से संपर्क किया लेकिन कुछ दिनों बाद काँग्रेस सरकार ने  नानाजी देशमुख को गिरफ़्तार कर लिया गया.

नानाजी ने अपना वेश इस हद तक बदल रखा था कि उन्हें गिरफ़्तार करने के बाद भी पुलिस को विश्वास नहीं था कि उसने सही व्यक्ति को गिरफ़्तार किया भी है या नहीं. नानाजी ने इस भ्रम का फ़ायदा उठाया और टॉयलेट में जाकर वो छोटी डायरी फ़्लश कर दी जिसमें उनके करीबी लोगों के टेलीफ़ोन नंबर लिखे हुए थे.

नानाजी देशमुख पूरे दो महीने भूमिगत रहे थे लेकिन पकड़े जाने से पहले उन्होंने अंडरग्राउंड नेटवर्क बना दिया था.

नानाजी को काँग्रेस सरकार ने पहले तिहाड़ जेल में रखा, फिर वहाँ से उन्हें अंबाला जेल ले जाया गया.

मंत्री पद ठुकराया

सन 1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा के तीन दिन बाद ही जनसंघ, लोकदल, संगठन कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी का विलय कर जनता पार्टी का गठन किया गया. शुरू में मना करने के बावजूद जयप्रकाश नारायण के आग्रह पर नानाजी देशमुख ने बलरामपुर से चुनाव लड़ा और कांग्रेस की उम्मीदवार और बलरामपुर की रानी को भारी अंतर से पराजित किया.

मोरारजी देसाई नानाजी देशमुख को अपने मंत्रिमंडल में लेना चाहते थे लेकिन नानाजी ने इस पेशकश को अस्वीकार करते हुए मध्य प्रदेश के नेता ब्रजलाल वर्मा को अपनी जगह मंत्री पद के लिए नामांकित करवाया.

चित्रकूट के लोगों के बीच काम

8 अक्तूबर, 1978 को जेपी की मौजूदगी में पटना में नानाजी देशमुख ने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी और उसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित चित्रकूट को अपनी कर्मभूमि बनाया.

नानाजी देशमुख ग्रामीण शिक्षा स्तर में सुधार लाना चाहते थे इसलिए उन्होंने ‘चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय’ की स्थापना की और यह भारत का पहला ग्रामीण विश्वविद्यालय था.

मनोज कुमार मिश्र लिखते हैं, “नानाजी ने आर्थिक स्वाबलंबन,शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास को भी उतना ही महत्व दिया. उन्होंने चित्रकूट ज़िले के गाँवों को मुक़दमेबाज़ी से मुक्त कराने के लिए अनोखी योजना आरंभ की. उन्होंने पीढ़ी-दर-पीढ़ी मुक़मेबाज़ी में फंसे परिवारों को समझा-बुझाकर आपस में बैठकर अदालत से बाहर मामला सुलझाने का अभियान चलाया. उनके प्रयास से करीब 500 गाँव विवादमुक्त श्रेणी में आ गए.”

शरीर को चिकित्सा कार्य के लिए सौंपा

दो बार सांसद रहते हुए उन्होंने कभी सरकारी आवास नहीं लिया. उन्होंने हमेशा सांसदों का वेतन बढ़ाए जाने का विरोध किया और जब उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली तो उन्होंने बढ़ी हुई रकम प्रधानमंत्री सहायता कोष में दान कर दी.

उन्होंने सांसद निधि का पूरा पैसा चित्रकूट के विकास में लगाया. वो जीवन भर लिखने-पढ़ने का काम करते रहे. जब उनकी आँखों ने उनका साथ छोड़ दिया और उन्हें लिखने में परेशानी होनी लगी, तब भी वो बोलकर लिखवाया करते थे.

निधन से पहले उन्होंने हलफ़नामा देकर अपने शरीर को चिकित्सा कार्य के लिए सौंप दिया था.

27 फ़रवरी, 2010 को 93 वर्ष की आयु में उन्होंने इस संसार से विदा ली.

नानाजी देशमुख को सन 1999 में राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया था । समाज सेवा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए उन्हें पहले पद्मविभूषण और सन 2019 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। नानाजी एक बहुमूल्य रत्न थे, जिन्होंने समाज को एक नई दिशा और ऊर्जा दी।

 

 

कमलेश पाण्डेय
अनौपचारिक एवं औपचारिक लेखन के क्षेत्र में सक्रिय, तथा समसामयिक पहलुओं, पर्यावरण, भारतीयता, धार्मिकता, यात्रा और सामाजिक जीवन तथा समस्त जीव-जंतुओं पर अपने विचार व्यक्त करना।

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