बिहार चुनाव: इस साल 2025 के अंत तक बिहार में विधानसभा चुनाव होना तय है. बिहार प्रदेश की राजनीति केंद्र की राजनीति पर भी सीधा असर डालती है इसलिए केंद्र की किसी भी सरकार के लिए बिहार के साथ तालमेल काफ़ी अहम होता है.
बिहार की राजनीति का ऊंट कब और किस करवट बैठेगा यह न तो खुद ऊँट को पता होता है और न ही बैठाने वाले को ही, लेकिन एक बात साफ है कि, पिछले चुनावों की तरह इस बार भी बिहार की राजनीत की धुरी नीतीश कुमार ही होंगे और यह बात पूरी तरह से पक्की भी हैं।
बीजेपी ने फ़िलहाल राज्य में नीतीश की जनता दल यूनाइटेड के नेतृत्व में चुनाव लड़ना स्वीकार कर लिया है. वहीं प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी के उनके विरोधी दल के रूप में मुखर होने की उम्मीद जताई जा रही है।
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले बहुत सारे सवाल हर किसी की मन में उठते हैं, जैसे की नीतीश बाबू को गठबंधन को एक रख पाने की चुनौती है. एनडीए में साल 2020 के पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान के तौर पर दरार देखी गई थी और इसका फायदा आरजेडी ने उठाया था.
क्या बीजेपी अकेले दम पर बिहार में निर्णायक बढ़त हासिल करने की सत्ता पर काबिज हो पाएगी? क्या तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद एंटी-इनकंबेंसी को भुना पाएगी?
कांग्रेस के सामने क्या विकल्प हैं और क्या काँग्रेस का अस्तित्व रह बचा रहेगा?
चुनाव से पहले ही राजनीति में बढ़ती गर्मी?
बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मी अब बढ़ने लगी है. चुनावी समीकरण भी अब आकार ले रहे हैं. ऐसे में एक बार फिर से चुनावी गठबंधन की बात जोर शोर से उठ रही है.
कई बार बिहार चुनाव में नेताओं के भाषण बहुत ही कढ़वे और व्यक्तिगत हमले होते है. बजट सत्र में ही इसकी बानगी भी दिखी. तेजस्वी हों या फिर नीतीश दोनों ही व्यक्तिगत हमला कर रहे हैं. एनडीए हो या फिर इंडिया गठबंधन दोनों तरफ से व्यक्तिगत हमले होने शुरू हो गए हैं।
नीतीश कुमार सदन में तेजस्वी को बच्चा कहकर बात करते हैं. इस तरीके से वह उनके कद को कम करने का प्रयास करते हैं. नीतीश का कहना है कि उन्होंने तेजस्वी के पिता लालू यादव के साथ राजनीति की है. ऐसे में वह उन्हें क्या सिखाएंगे?
इसके अलावा आरजेडी नेता तेजस्वी यादव इस समय नीतीश कुमार के साथ ही बीजेपी के उप मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी का भी राजनीतिक हमला झेल रहे हैं. इसके साथ ही अन्य नेता जैसे प्रशांत किशोर भी तेजस्वी पर हमलावर हैं.
क्या बदलेगा गठबंधन का समीकरण?
बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव में 243 सीटों की विधानसभा में बीजेपी 110 सीटों पर और जेडीयू 115 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. इस बार सीटों के बंटवारे को लेकर रस्साकशी और सौदेबाजी देखने को मिल सकती है क्योंकि पिछली बार जेडीयू मात्र 43 सीटों जीत पाई थी.
अगर आरजेडी के पास सीटें अच्छी आती हैं तो नीतीश कुमार के पास आरजेडी के साथ जाने का विकल्प बनता है. इसके साथ साथ प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी भी एक बार सत्ता में कुछ रोल निभाना चाहेगी लेकिन फिलहाल उसका किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं है।
पिछली बार जेडीयू का प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा था. इसके बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री इसलिए बनाया गया क्योंकि उनके पास दूसरा विकल्प मौजूद है. इस समय जेडीयू और आरजेडी के रिश्ते खराब हैं. ऐसे में बीजेपी और जेडीयू चुनाव में साथ लड़ने की संभावना है.
नीतीश कुमार अब भी असरदार?
वैसे तो नीतीश कुमार की साख अब पहले जैसे नहीं रही. उनकी राजनीतिक निष्ठा पासे की तरह पलटती रही. इसका नुक़सान हुआ है. वहीं उनके खराब स्वास्थ्य और सरकार की कार्यशैली के कारण उनके प्रति विश्वास में भी कमी आई है, लेकिन यह भी स्थिति नहीं आई कि बीजेपी उनसे पल्ला झाड़कर अकेले चुनाव में उतर जाए.
फिलहाल बीजेपी भी अभी आश्वस्त नहीं कि वह अकेले चुनाव लड़कर चुनाव जीत सकती है. बीजेपी अगर अकेले चुनाव लड़ेगी तो शायद बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी लेकिन इतनी हैसियत नहीं है कि अकेले सरकार बना लें. ऐसे में नीतीश कुमार को चुनाव तक साथ रखना लाजमी है.
नीतीश कुमार को लेकर बीजेपी नेताओं में बेचैनी बहुत है. चुनाव के बाद यह बेचैनी और भी दिखाई देगी. चुनाव में सीट जीतने का अनुपात अगर पिछली बार की तरह ही रहा तो इस बार बिहार में महाराष्ट्र जैसी राजनीति भी देखने को मिल सकती है।
नीतीश कुमार के बाद जेडीयू का क्या होगा?
नीतीश कुमार अब 74 साल के हो गए हैं. उम्र के साथ उनके स्वास्थ्य को लेकर दिक्कतें सामने आई हैं. ऐसे में उनके नेतृत्व को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. नीतीश कुमार के स्वास्थ्य को लेकर पूरी की पूरी राजनीति तैयार की जा रही है. साल 2005 में जब नीतीश ने सत्ता संभाली थी तो यह कहा जाता था कि बहुत अच्छे शब्द बोलने वाले व्यक्ति के पास सत्ता आई है. इससे इतर पिछले दिनों में उनका भाषण देखें, उनका स्टाइल देखें, वह कैसे गुस्सा हो जाते हैं. सभी महसूस कर रहे हैं कि उनका स्वास्थ्य अब अच्छा नहीं है.
नीतीश कुमार ने अपने बाद दूसरी पंक्ति का कोई नेता उभरने नहीं दिया और 23 साल से पूरी जेडीयू उनके ही इर्द गिर्द घूम रही है.
जेडीयू में दूसरी पंक्ति में अब उनके बेटे निशांत कुमार को आगे किया जा रहा है. लेकिन सवाल यह है कि 40 साल की उम्र पार कर रहा व्यक्ति इतनी बड़ी राजनीतिक विरासत को कैसे संभाल पाएगा।
नीतीश कुमार के पास 14 प्रतिशत वोट है और बीजेपी भी इस बात को मानती है. यह वजह है कि नीतीश कुमार जिस तरफ जाते हैं, जीत उसी की होती है.
नीतीश कुमार के बाद जेडीयू का अस्तित्व मुश्किल सा लगता है. उन्होंने अपने बेटे को राजनीति में उस तरह से नहीं बड़ा किया, जिस तरह से लालू प्रसाद या रामविलास पासवान ने किया था.
नीतीश की राजनीति उन्हीं पर केंद्रित रही. उनके बेटे निशांत कुमार ने सक्रिय राजनीति में कभी भी भाग नहीं लिया है. ऐसे में उनके पास ज्यादा अनुभव भी नहीं है. जेडीयू कार्यकर्ताओं की पार्टी नहीं, जातिगत आधार पर खड़ी पार्टी है. ऐसे में नीतीश कुमार के बाद जेडीयू का क्या भविष्य होगा, कुछ भी कहा नहीं जा सकता है.
एक समय था जब नीतीश ने जातिगत आधार पर उपेंद्र कुशवाहा को आगे बढ़ाया लेकिन फिर आगे जाने नहीं दिया. प्रशांत किशोर भी एक समय नीतीश के बहुत क़रीबी थे लेकिन उनके क़रीब जो भी रहा है वह ज्यादा समय तक उनके साथ नहीं रहा.
बिहार की राजनीति में यह भी चर्चा होती है कि जो नेता जेडीयू में नीतीश के बहुत क़रीब हैं. वह बीजेपी के भी उतने की क़रीब हैं.
जेडीयू का वोट बैंक कहां जाएगा?
बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए का नेतृत्व नीतीश कुमार के हाथ में रहेगा, लेकिन अगर मान लें कि न रहे तो क्या होगा? इससे अति पिछड़ा वर्ग का वोट टूटेगा. यह आरजेडी से टूटकर जेडीयू में आया है तो इसका बड़ा हिस्सा बीजेपी में जाएगा और छोटा हिस्सा आरजेडी के पक्ष में जा सकता है. कांग्रेस या अन्य किसी पार्टी को इसका कोई फायदा होने की उम्मीद नहीं है.
बिहार में 15 साल सरकार में रहने के बाद भी आरजेडी का वोट प्रतिशत 26 से 27 के बीच बना हुआ है. अति पिछड़ा वर्ग काफी जद्दोजहद के बाद जेडीयू के साथ गया है.
आरजेडी में अति पिछड़ा वर्ग की वापसी के लिए तेजस्वी को अखिलेश यादव की तरह राजनीतिक संकेत देने होंगें.
उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव ने पिछले लोकसभा चुनाव में अपने परिवार के पांच लोगों को छोड़कर गैर यादव पिछड़े वर्ग को टिकट दिया था और वह लोकसभा में वह 37 सीटों पर चुनाव जीते थे।
इसी तरह तेजस्वी यादव को भी टिकट बंटवारे में सकारात्मक संकेत देने पड़ेंगे. उन्हें प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा और फिर वह लौटकर न आएं इसकी कोई वजह नहीं है, लेकिन यह आसान भी नहीं है. क्योंकि प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी भी पीछे पीछे सभी के वोटबैंक में सेंध लगा रही है।
बिहार चुनाव में बीजेपी रणनीति किसी रहेगी?
बीजेपी के प्रदेश परिषद की बैठक में किसी ने भी नहीं कहा कि बीजेपी बिहार में अकेले दम पर सरकार बनाने की इच्छा रखती है. इसको देखकर लगता है कि, बीजेपी ने अपना एक कदम पीछे हटा लिया है. पिछले मंत्रिपरिषद विस्तार में बीजेपी ने अपने वोट बैंक सवर्ण, वैश्य को साधते हुए कुर्मी, कोइरी सहित अति पिछड़ों को भी साधने की कोशिश को है.
बीजेपी रणनीतिक तौर पर कल्याणकारी योजनाओं से अति पिछड़ा वर्ग के क़रीब जा रही है तो जेडीयू की मुख्य वोटर महिलाओं में भी पैठ बढ़ा रही है.
बीजेपी बहुत संभल कर राजनीति कर रही है जिससे नीतीश कुमार दूर भी न जाएं और वह अपने पैरों पर खड़ी भी हो जाए.
वैसे तो बीजेपी में हमेशा महत्वाकांक्षा रही है कि उसकी अपने दम पर सरकार बनें. बिहार में नीतीश कुमार बीजेपी की जरूरत हैं और फिलहाल उनके बिना बीजेपी को पूर्ण बहुमत से चुनाव जीतना मुश्किल है. इस चुनाव में भी बीजेपी को नीतीश कुमार की जरूरत है परन्तु, दोनों ही इस रिश्ते से खुश नहीं हैं लेकिन इसे निभाया जा रहा है.”
ऐसा लगता है कि, बिहार में बीजेपी का काडर उतना मजबूत नहीं है और न ही कोई ऐसा जन नेता उभरा जो पार्टी का संपूर्ण नेतृत्व संभाल सके. यही वजह है कि साल 2013 में जब नीतीश कुमार ने गठबंधन बदल आरजेडी में गए और फिर बीजेपी में आए तो भी बीजेपी ने उनका स्वागत किया.
अभी बिहार में बीजेपी और जेडीयू की गठबंधन की सरकार में बीजेपी के दो उप मुख्यमंत्री और 21 मंत्री हैं, वहीं जेडीयू के 13 मंत्री हैं.
पिछली बार जेडीयू की 43 सीट आई थी और बीजेपी 74 सीट आई थी. यह अंतर बढ़ता जा रहा है और निश्चित रूप से बीजेपी जेडीयू के स्पेस को कम करने की कोशिश कर रही है.
बिहार में बीजेपी अन्य राज्यों की तरह सहयोगी दलों को पीछे छोड़कर आगे नहीं बढ़ पा रही है इसका कारण उनके अंदर की राजनीति और समीकरण की दिक्कत है. पिछड़े समुदाय के नेताओं को आगे लेकर आने की कायवाद शुरू तो हो चुकी है और सम्राट चौधरी को आगे लेकर आना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
कांग्रेस के पास क्या विकल्प है?
कांग्रेस जिस राह पर चल रही है उससे बिहार ही नहीं अपितु पूरे देश में उसका जनआधार लगभग खत्म होने की कगार पर है। कॉंग्रेस के लिए हर चुनाव में अस्तित्व के महासंकट वाले राज्यों की संख्या बढ़ती जा रही है बिहार में इस बार भी कांग्रेस के अस्तित्व की लड़ाई है.
बिहार में वह गठबंधन करते हैं तो सवाल है कि उन्हें सीटें कितनी मिलेंगी. आरजेडी की तरफ से इसका जिक्र बार बार किया जा रहा है 70 सीटों में से कांग्रेस ने सिर्फ 19 सीटें जीती थी. और इन परिणामों को देखकर लगता है की इस साल होने वाले चुनावों में आरजेडी अपनी सीटें बढ़ाने पर जोर देगी।
हालांकि इस समय कांग्रेस गठबंधन में काफी आक्रामक नज़र आ रही है. कांग्रेस के विधायक अजीत शर्मा ने कुछ दिन पहले बयान दिया था कि कांग्रेस अब “बी” नहीं “ए” पार्टी बनकर रहेगी. प्रभारी कृष्ण अल्लावारु भी बहुत सधे हुए शब्दों में आक्रामक दिखने की कोशिश कर रहे हैं.
आरजेडी ने अभी तक कुछ कहा नहीं है लेकिन कांग्रेस की सीटें कम करने और सीपीआईएमएल की सीट बढ़ाने की चर्चा है. पिछले चुनाव में सीपीआईएमएल को 19 में से 12 सीटों पर जीत मिली थी. ऐसे में कांग्रेस और आरजेडी के बीच चुनाव तक उठापटक बढ़ने की आशंका है.
बिहार में छोटे दलों की भूमिका
बिहार की राजनीति जातियों पर आधारित है. छोटी पार्टियों के नेताओं की एक विशेष जाति पर पूरी पकड़ है; जैसे चिराग पासवान का एक अपना वोट बैंक है. जीतन राम मांझी का एक अलग वोट बैंक है. इनके जातिगत वोट बैंक को हासिल करने के लिए गठबंधन की जरूरत है.
ऐसा लगता है कि, तेजस्वी यादव इस चुनाव में अखिलेश यादव से कुछ सीखेंगे और कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने के बजाय अपनी सीटों पर प्रत्याशी उतारते हैं तो उन्हें ज्यादा फायदा होगा. बीजेपी, चिराग पासवान को उतनी ही सीटें देगें जितनी पहले देते आ रहे थे और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की भी जहां पकड़ है, वहां सीटें देंगे. बाकी छोटी पार्टियों की भूमिका कुछेक क्षेत्रों में ही है जहां उनकी जातियों का वोट बैंक है.
जनसुराज पार्टी और प्रशांत किशोर कितने बड़े कारक?
बिहार चुनाव में इस बार जनसुराज पार्टी भी एक फैक्टर है. यह कितना बड़ा है इसका पता चुनाव के बाद ही पता चलेगा. विधानसभा चुनाव में मतदाता कई बार अपने नुमाइंदे की जगह पार्टी या सरकार को चुनने के किए मतदान करते हैं और उस वक़्त अगर ये लगने लगता है कि कोई पार्टी एकदम हाशिए पर है या फिर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं तो ऐसे में उनकी तरफ लोगों का रुझान कम भी हो जाता है उस स्थिति में प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी के कितने उम्मीदवार जीतकर आते है यह देखने वाली बात होगी.
प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी जिस तरह की राजनीति कर रही है, जिस तरह से लोगों से जमीनी स्तर पर जुड़ कर संवाद कर रही है उसको देखकर लगता है को वह परंपरागत वोटबैंक में से कुछ न कुछ जरूर खींच कर ले जायेंगे और जितना भी वोट लाएंगे, आरजेडी और उनके सहयोगी दलों का ही नुक़सान होगा.
प्रशांत किशोर ‘बिहार फर्स्ट’ और बिहार के गांवों के समुचित विकास की बात करते है जो की कहीं न कहीं बीजेपी के पंडित दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा के अनुरूप है।