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Friday, July 4, 2025

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अक्षरधाम: स्वामीनारायण जयंती चैत्र मास में शुक्लपक्ष की नवमी को मनाई जाएगी

अक्षरधाम (स्वामीनारायण): आपने स्वामीनारायण (Swaminarayan) संप्रदाय के भव्य मंदिर अक्षरधाम को शायद देखा होगा। इन मंदिरों में मुख्य मूर्ति महान संत स्वामीनारायण की होती है। 3 अप्रैल 1781 में अयोध्या के पास छपिया नामक गांव में स्वामीनारायण जी का जन्म हुआ था। तिथि के अनुसार चैत्र, शुक्ल नवमी के दिन उनका जन्म हुआ था। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 6 अप्रैल 2025 को उनकी जयंती मनाई जाएगी। मानव जाति और धर्म के लिए सेवाभाव की प्रेरणा देते हुए साल 1830 में स्वामीनारायण का देहांत हो गया।

संत स्वामीनारायण का जीवन

3 अप्रैल 1781 में अयोध्या के पास छपिया नामक गांव में घनश्याम पांडे का जन्म हुआ। हाथ में पद्म और पैर से बज्र, ऊर्ध्व रेखा तथा कमल जैसे दिखने वाले चिन्ह देखकर ज्योतिषियों ने कहा कि यह बालक लाखों लोगों के जीवन को सही दिशा देगा। ऐसे चिन्ह तो भगवान के अवतार में ही पाए जाते हैं। घनश्याम पांडे ने जन्म के 5 वर्ष की अवस्था में उन्होंने विद्या आरंभ की। 8 वर्ष की आयु में उनका जनेऊ संस्कार हुआ। इस संस्कार के बाद उन्होंने अनेकों शास्त्रों को पढ़ लिया। जब वे 11 वर्ष के हुए तब उनके माता-पिता हरिप्रसाद पांडे और प्रेमवती पांडे का देहांत हो गया।

“स्वामी नारायण नारायण हरि हरि भजमन नारायण नारायण हरि हरि”।

माता पिता के देहांत के बाद वे घर छोड़कर संन्यासी बनकर पूरे देश की परिक्रमा करने के लिए निकल पड़े। इसी दौरान उनकी नीलकंठ वर्णी के रूप में पहचान स्थापित हो चली थी। इस दौरान उन्होंने गोपाल योगी से अष्टांग योग सीखा। कुछ समय बाद कबीरदासजी के गुरु स्वामी रामानंद ने नीलकंठ वर्णी यानी घनश्याम पांडे को पीपलाणा गांव में दीक्षा देकर उनका नाम ‘सहजानंद’ रख दिया। एक साल बाद जैतपुर में उन्होंने सहजानंद को अपने सम्प्रदाय का आचार्य पद भी दे दिया। रामानंद के जाने के बाद घनश्याम पांडे यानी सहजानंद जी गांव गांव जाकर स्वामी नारायण मंत्र का जप करने और भजन करने की अलख जगाने लगे।

भारत के कई प्रदेशों में भ्रमण करने के बाद वे गुजरात आकर रुके। यहां उन्होंने अपने एक नए संप्रदाय की शुरुआत की और उनके सभी अनुयायियों ने इस संप्रदाय को अंगीकार किया। तब वे पुरुषोत्तम नारायण कहलाए जाने लगे। उन्होंने देश में फैली कुरीतियों को खत्म करने के लिए कई कार्य‍ किए और जब भी देश में प्राकृतिक आपदाएं आई तो उन्होंने अपने अनुयायियों की मदद से लोगों की सेवा की। इस सेवाभाव के चलते लोग उन्हें अवतारी मानने लगे और इस तरह उन्हें स्वामी नारायण कहा जाने लगा।

घनश्याम पांडे से नीलकंठवर्णी, नीलकंठ वर्णी से वे पुरुषोत्तम सहजानंद स्वामी और बाद में स्वामी नारायण बन गए।

मानव जाति और धर्म के लिए सेवाभाव की प्रेरणा देते हुए साल 1830 में स्वामीनारायण का देहावसान हो गया, लेकिन उनके मानने वाले आज दुनिया के कोने-कोने में हैं जो उन्हें भगवान मानते हैं। उनकी मंदिरों में मूर्तियां स्थापित करके अब उनकी पूजा होने लगी है और साथ ही मंदिरों के माध्यम से भी उनका जीवन दर्शन देखा जा सकता है। जबकि सहजानंद ने नारायण नारायण जपने और श्रीहरि की भक्ति को ही सर्वोपरि माना।

संत स्वामीनारायण का प्रस्थान

साल 1830 में, स्वामीनारायण ने अपने अनुयायियों को इकट्ठा किया और अपने प्रस्थान की घोषणा की। बाद में 1 जून 1830 (जेठ सुद 10, संवत 1886) को उनकी मृत्यु हो गई , और अनुयायियों का मानना ​​है कि, उनकी मृत्यु के समय, स्वामीनारायण पृथ्वी को छोड़कर अक्षरधाम चले गए, जो उनका निवास स्थान था।

गढ़दा में लक्ष्मी वाडी में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया गया था

 

 

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