IRAN: पारस के शक्तिशाली शिया मुस्लिम देश ईरान बनने की कहानी
IRAN: ईरान अब वर्तमान में एक शिया मुस्लिम देश है। लेकिन इतिहास में ईरान की पहचान पारसी धर्म से होती थी, आज का ईरान प्राचीन काल के ईरान से बहुत भिन्न है।
प्राचीन काल के ईरान को सबसे पहले सिकंदर ने जीता और फिर उसके बाद में तुर्क एवं अरब के लोगों ने ईरान पर अधिकार किया, साथ ही साथ प्राचीन ईरान की संस्कृति को भी नष्ट कर दिया।
जब अरब के खलिफाओं ने अपने धर्म का विस्तार किया तो आसपास के कई देशों को फतह करने के बाद ईरान को भी फतह कर लिया और वहाँ मुस्लिम धर्म को स्थापित किया, जो वर्तमान में एक शक्तिशाली शिया मुस्लिम देश है
इतिहास को देखने पर ईरान के संदर्भ में बहुत सारे धार्मिक और सांस्कृतिक परिवर्तन देखने को मिलती है जैसे,
ईरान का प्राचीन धर्म है पारसी धर्म (Zoroastrianism) था, ऋग्वेद और जेंद अवेस्ता के अलावा पारसी और हिन्दुओं के प्राचीन इतिहास का अध्ययन करने से अनुमान लगा सकते है कि भूगोलिक रूप से आज के अफगानिस्तान और ईरान के बीच का क्षेत्र जो तुर्कमेनिस्तान तक है, पहले देवताओं और असुरों के बीच युद्ध का क्षेत्र हुआ करता होगा।
असुरों का पारस्य (zoroastrian) से लेकर अरब-मिस्र तक शासन रहा होगा, यही कारण है कि अत्यंत प्राचीन युग के ईरानियों और वैदिक आर्यों की प्रार्थना, उपासना और कर्मकांड में कोई भेद नजर नहीं आता और सांस्कृतिक समानता भी है।
अवेस्ता (Avesta), पारसी धर्म के धार्मिक साहित्य का प्राथमिक संग्रह है, तथा अवेस्ता के सभी पाठ अवेस्तान भाषा में रचित हैं और अवेस्तान वर्णमाला में लिखे गए हैं। इसे ससैनियन काल के अंत (लगभग 6वीं शताब्दी ई.पू.) के दौरान संकलित और संशोधित किया गया था, हालांकि इसके अलग-अलग पाठ संभवतः पुराने ईरानी काल (लगभग 15वीं शताब्दी ई.पू. – 4वीं शताब्दी ई.पू.) के दौरान तैयार किए गए थे। संकलन से पहले, इन ग्रंथों को सदियों तक मौखिक रूप से पारित किया गया था।
पाठ का सबसे पुराना जीवित अंश 1323 ई.पू. का है।
अवेस्ता ग्रंथ कई अलग-अलग श्रेणियों में आते हैं और बोली या उपयोग के आधार पर व्यवस्थित किए जाते हैं।
धार्मिक समूह में मुख्य ग्रंथ ‘यास्ना’ है, जिसका नाम यास्ना समारोह से लिया गया है, जो कि पारसी धर्म की पूजा का प्राथमिक कार्य है, जिसमें यास्ना ग्रंथ का पाठ किया जाता है।
यास्ना ग्रंथों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा पाँच गाथाएँ हैं, जिनमें सत्रह भजन शामिल हैं, जिनका श्रेय स्वयं ज़ोरोस्टर को दिया जाता है।
ये भजन, पाँच अन्य छोटे पुराने अवेस्तान ग्रंथों के साथ, जो यास्ना का हिस्सा हैं, पुरानी (या ‘गाथिक’) अवेस्तान भाषा में हैं।
यास्ना के शेष ग्रंथ युवा अवेस्तान में हैं, जो न केवल भाषा के बाद के चरण से हैं, बल्कि एक अलग भौगोलिक क्षेत्र से भी हैं।
‘जेंद अवेस्ता’ में भी वेद के समान गाथा (गाथ) और मंत्र (मन्थ्र) हैं। इसके कई विभाग हैं जिसमें गाथ सबसे प्राचीन और जरथुस्त्र के मुंह से निकला हुआ माना जाता है। एक भाग का नाम ‘यश्न’ है, जो वैदिक ‘यज्ञ’ शब्द का रूपांतर मात्र है।
जरथुस्त्र पारसी धर्म के संस्थापक थे। इतिहासकारों का मत है कि जरथुस्त्र 1700-1500 ईपू के बीच हुए थे। यह लगभग वही काल था, जबकि राजा सुदास का आर्यावर्त में शासन था और दूसरी ओर हजरत इब्राहीम अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे।
प्राचीन पारसी धर्म ईरान का राजधर्म था। इसके धर्मावलंबियों को पारसी या जोराबियन कहा जाता है।
जरथुस्त्र ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरुषहस्प के पुत्र थे। उनकी माता का नाम दुधधोवा (दोग्दों) था, जो कुंवारी थी। 30 वर्ष की आयु में जरथुस्त्र को ज्ञान प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु 77 वर्ष 11 दिन की आयु में हुई।
इस्लाम धर्म में परिवर्तन होने से पहले, ईरान का राजधर्म पारसी था, और ईरान को पारस देश कहा जाता था
ईसा पूर्व 6ठी शताब्दी में एक महान पारसीक (प्राचीन ईरानवासी) साम्राज्य की स्थापना ‘पेर्सिपोलिस (Persepolis) नामक स्थान पर हुई थी, जिसने 3 महाद्वीपों और 20 राष्ट्रों पर लंबे समय तक शासन किया। इस साम्राज्य का राजधर्म जरतोश्त या जरथुस्त्र के द्वारा 1700-1800 ईसापूर्व स्थापित, ‘जोरोस्त्रियन’ था और इसके करोड़ों अनुयायी रोम से लेकर सिन्धु नदी तक फैले थे।
6ठी सदी के पूर्व तक पारसी समुदाय के लोग ईरान में ही रहते थे। 7वीं सदी में खलिफाओं के नेतृत्व में इस्लामिक क्रांति होने के बाद उनके बुरे दिन शुरू हुए और उनको अरब से निरंतर आक्रमणों का शिकार होना पड़ा।
आठवीं शताब्दी आते आते पारस (फारस) अर्थात ईरान में सख्ती से इस्लामिक कानून लागू किया जाने लगा जिसके चलते बड़े स्तर पर धर्मान्तरण और लोगों को सजाएं दी जाने लगीं। ऐसे में लाखों की संख्या में पारसी समुदाय के लोग पूरब की ओर पलायन कर गए या धर्म परिवर्तन कर रहने लगे।
7वीं शताब्दी में तुर्कों और अरबों ने ईरान पर बर्बर आक्रमण किया और पारसियों के सामूहिक कत्लेआम की इंतहा कर दी। ‘सॅसेनियन’ साम्राज्य के पतन के बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा सताए जाने से बचने के लिए पारसी लोग अपना देश छोड़कर भागने लगे।
इस्लामिक क्रांति के इस दौर में बहुत सारे पारसी (ईरानियों) जनमानस ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया और वे समुद्र पैदल मार्ग से चलकर भारत महादीप में आकार बस गए।
ईरान से आए पारसी शरणार्थी, संजान (वलसाड), दमण दीव, और मुंबई में आकर बस गए।
कहा जाता है कि इस्लामिक अत्याचार से त्रस्त होकर पारसियों का पहला समूह लगभग 766 ईस्वी में दीव (दमण और दीव) पहुंचा। दीव से वे गुजरात में बस गए। पारसियों में कई महाना राजा, सम्राट और धर्मदूत हुए हैं लेकिन चूंकि पारसी अब अपना राष्ट्र ही खो चुके हैं तो उसके साथ उनका अधिकतर इतिहास भी खो चुका है।
इस्लाम के उदय के बाद आदिवासियों को और अन्य आस्था के लोगों के लिए अपने अस्तित्व को बचा पाना आसान नहीं था। इस दौरान कई युद्ध भी हुए। तुर्क और अरबों की फतह के बाद ईरानियों ने शिया मुसलमान बनकर अपने वजूद को बचाया। अंततः एक पारसी देश शिया मुस्लिम बहुल देश बन गया। हालांकि सऊदी अरब के लोग अब भी खुद को ही वास्तविक मुसलमान मानते हैं जबकि पारसी से मुस्लिम बने ईरान को गैर-मुस्लिम।
अरब के लोग अन्य मुल्कों के गैर सुन्नी लोगों को मुसलमान नहीं मानते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व ही सऊदी अरब के सबसे बड़े धर्मगुरु मुफ्ती अब्दुल अजीज अल-शेख ने घोषणा कर दी थी कि ईरानी लोग मुस्लिम नहीं हैं। अब्दुल-अजीज सऊदी किंग द्वारा स्थापित इस्लामिक ऑर्गेनाइजेशन के चीफ हैं। उन्होंने कहा कि ईरानी लोग ‘जोरोएस्ट्रिनिइजम’ यानी पारसी धर्म के अनुयायी रहे हैं। उन्होंने कहा था, ‘हम लोगों को समझना चाहिए कि ईरानी लोग मुस्लिम नहीं हैं क्योंकि वे मेजाय (पारसी) के बच्चे हैं।
पारसी धर्म और उसकी संस्कृति ईरान से सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है, अब पारसियों का अपनाने वाला भारत को ही वह अपना देश मानते है और यहाँ पर उस धर्म और सांकृतिक परंपरा को जीवित रखे हुए हैं।