Playback Singer Mukesh: मुकेश चंद माथुर की आवाज का जादू और हिंदी फिल्मों में उनका सफर
Legendary Playback Singers of India Playback – Mukesh: संगीत जगत के एक लोकप्रिये गायक मुकेश चंद माथुर (Mukesh Chand Mathur), जिन्हें दुनिया मुकेश के नाम से जानती है, की संगीत यात्रा का सफ़र एक शादी से शुरू हुआ था. जब वो दिल्ली में अपनी बहन की शादी में गाना गा रहे थे. उस शादी समारोह में फ़िल्म जगत से दो महत्वपूर्ण व्यक्ति भी मेहमान थे और उनमें से एक मशहूर निर्देशक तारा हरीश भी थे.
मुकेश की आवाज़ पर सबसे पहले उनके दूर के रिश्तेदार मशहूर अभिनेता मोतीलाल की नज़र पड़ी, जब उन्होंने अपनी बहन की शादी में गाना गाया था।
मोतीलाल उन्हें बॉम्बे (अब मुंबई) ले गए और पंडित जगन्नाथ प्रसाद से गायन की शिक्षा दिलवाई।
इस दौरान मुकेश को एक हिंदी फ़िल्म, निर्दोष (1941) में एक अभिनेता-गायक के रूप में भूमिका की पेशकश की गई।
उनका पहला गाना “दिल ही बुझा हुआ हो तो” था, जो एक अभिनेता-गायक के रूप में नीलकंठ तिवारी द्वारा लिखित ‘निर्दोष के लिए था।
पार्श्व गायक के रूप में उनका पहला हिट गाना 1945 में अभिनेता मोतीलाल के लिए फ़िल्म पहली नज़र में गाया गया “दिल जलता है तो जलने दे” था, जिसका संगीत अनिल बिस्वास ने दिया था और गीत आह सीतापुरी ने लिखे थे।
मुकेश गायक के.एल. सहगल के इतने प्रशंसक थे कि पार्श्व गायन के अपने शुरुआती वर्षों में वे अपने आदर्श की नकल करते थे। वास्तव में, ऐसा कहा जाता है कि जब के.एल. सहगल ने पहली बार “दिल जलता है…” गाना सुना, तो उन्होंने टिप्पणी की, “यह अजीब है, मुझे वह गाना गाने की याद नहीं है”।
उस समय मुकेश की उम्र 16 साल थी. 1942 में जाकर प्ले बैक सिंगिग का प्रोफ़ेशन शुरू हो गया और मुकेश के गाने के करियर की शुरुआत हो गई.
अभिनेता मोतीलाल पहले फ़िल्मों में अपने गाने ख़ुद गाया करते थे. उन्होंने पहली नज़र फ़िल्म में तय किया कि उनका गाना एक प्लेबैक सिंगर गाएगा. मुकेश ने वो गाना रिकॉर्ड कर दिया, लेकिन जब फ़िल्म पूरी हुई तो वो गाना फ़िल्म से हटा दिया गया.
मुकेश ने एक इंटरव्यू में था कि, “हम फ़िल्म के प्रोड्यूसर मज़हर ख़ाँ के पास गए और उनसे पूछा कि आपने ये गाना क्यों हटा दिया? उन्होंने कहा, कि मोतीलाल अक्सर चंचल किस्म के रोल करते हैं. उनके कैरेक्टर को ये सैड सॉन्ग सूट नहीं करेगा. हमारा दिल टूट गया.”
“हमने उनसे कहा, मज़हर भाई, हमारी एक विनिती है आप ये गाना रहने दीजिए फ़िल्म में, उन्होंने कहा भाई ये गाना चलेगा नहीं, ये बोर करता है और ड्रैग करता है. लेकिन बहुत जद्दोजहद के बाद वो इस बात के लिए राज़ी हो गए कि वो इस गाने को फ़िल्म में एक हफ़्ते तक रखेंगे. अगर लोगों को ये गाना पसंद आया तो इसे जारी रखेंगे वर्ना फ़िल्म से हटा देंगे.”
इस गाने की और भी दिलचस्प कहानी है, इस गाने की रिकार्डिंग एचएमवी स्टूडियो में होनी थी, तारीख़ और समय सब तय हो गया लेकिन मुकेश ऐन मौके पर लापता हो गए, वो थोड़े नर्वस थे. इसलिए हिम्मत जुटाने के लिए एक ‘बार’ में शराब पीने लगे.
दूरदर्शन के मशहूर प्रोड्यूसर शरद दत्त ने एक लेख में लिखा था, “मुकेश ने एक बार पीना शुरू किया तो पीते ही चले गए. दूसरी तरफ़ उनके इंतज़ार में संगीतकार अनिल बिस्वास का धैर्य जवाब दे रहा था. उन्होंने जब पूछताछ की तो उन्हें बताया गया कि हो सकता है मुकेश अमुक बार में बैठे शराब पी रहे हों. अनिल बिस्वास फ़ौरन वहाँ पहुंचे और उन्हें अपनी कार मे बैठाकर तक़रीबन घसीटते हुए स्टूडियो में लाए.”
“उन्होंने उन्हें बाथरूम में ले जाकर उनका सर वॉशबेसिन में घुसा दिया और नल की टोंटी पूरी रफ़्तार से खोल दी. पानी की रफ़्तार से मुकेश का नशा थोड़ा ढीला हुआ तो उन्होंने माफ़ी माँगते हुए कहा, ‘दादा रिकार्डिंग की कोई और तारीख़ ले लीजिए. आज मैं उतना अच्छा नहीं गा पाउंगा.”
अनिल बिस्वास ने उन्हें कस कर एक चाँटा मारा और धमकी दी कि अगर नहीं गाओगे तो सबके सामने तुम्हारी पिटाई करूँगा. आखिर मुकेश को वो गाना पड़ा और रिकार्डिंग पूरी हुई वो भी सिंगल टेक में. वो गाना था ‘दिल जलता है तो जलने दे….’
इस गाने के साथ मुकेश एक ऐसे सफ़र पर निकल पड़े जहाँ से उन्हें कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखना पड़ा.
इस गाने में कुंदन लाल सहगल की शैली की साफ़ झलक देखी जा सकती थी. ये गाना उन्होंने बिल्कुल सहगल की स्टाइल में गाकर उन्हें एक तरह से श्रद्धाँजलि दी थी. हालांकि लता मंगेश्कर और किशोर कुमार भी सहगल के भक्त थे.
यतींद्र मिश्र, लता मंगेशकर की जीवनी ‘लता सुर गाथा’ में लिखते हैं, “लता ने मुझे बताया था, मुकेश भैया इस मामले में ख़ुशनसीब थे कि बाद में सहगल साहब ने उनको अपना एक ख़ास हारमोनियम दे दिया था.
सहगल साहब उसी हारमोनियम पर बजा कर गाते थे और अभी भी वो मुकेश भैया के घर पर मौजूद है.”
सन 1964 में उन्होंने राज कपूर के बारे में लिखा था, “मैं पिछले 25 सालों से राज कपूर को जानता हूँ. इसे आप ‘सिल्वर जुबिली फ़्रेंडशिप’ भी कह सकते हैं. लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि राज कपूर ने हमेशा मेरी तारीफ़ ही की है.
उसने वक्त वक्त पर मेरी कटु आलोचना भी की है. जहाँ मेरे गुणों की तारीफ़ करते हुए वो कभी तृप्त नहीं हुआ, वहीं मौका पड़ने पर मेरे दोषों के एवज़ में उसने मुझे लताड़ा भी बहुत है.”
राज कपूर की बेटी ऋतु नंदा उनकी जीवनी ‘शो मैन द वन एंड ओनली राज कपूर’ में लिखती हैं, “राज कपूर कहा करते थे, ‘मेरी तो रूह मुकेश हैं, मैं तो सिर्फ़ एक शरीर हूँ. उन्होंने ही मुझे आवाज़ देकर सारी दुनिया के लोगों के दिलों में उतारा है, जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा, मैं तो बरबाद हो गया, मुझे लगा कि मेरी साँस ही चली गई है, मेरे जीवन में एक शून्य पैदा हो गया जिसे मैं कभी भी नहीं भर पाया.'”
मुकेश सादगी पसंद शख़्स थे. उनके बेटे नितिन मुकेश याद करते हैं, “उन्हें अच्छे कपड़े पहनने का शौक था लेकिन कपड़े, कोलोन और उनके वार्डरोब की हर चीज़ महंगी नहीं होती थीं.
एक बार जब विश्व दौरे पर जाने से पहले उनकी बड़ी लड़की ने उन्हें मँहगे जूते भेंट किए तो वो उन्हें अपने साथ ले कर नहीं गए. उनका कहना था मैंने अपने पूरे जीवन में अपने पैरों में इतनी कीमती चीज़ नहीं पहनी है, बाद में उनकी मृत्यु के बाद वो जूते मेरी माँ ने मुझे दे दिए.”
मुकेश के बेटे, नितिन बताते हैं, “मेरी माँ और मुकेश की पत्नी सरल त्रिवेदी गुजराती ब्राह्मण थीं और मुकेश माँस खाने वाले कायस्थ, जब उनके परिवार वालों को उनके प्यार के बारे में पता चला तो उन्होंने सरल को एक कमरे में बंद कर दिया. वो नहीं चाहते थे कि वो फ़िल्मों में गाने वाले माँसाहारी और शराब पीने वाले गायक से शादी करें.
मेरे पिता बारिश के पानी में भीगते हुए सारी रात उनके घर के सामने खड़े रहते थे, ताकि वो उनकी एक झलक भर पा सकें. 22 जुलाई, 1946 को जो मुकेश का जन्मदिन भी था, दोनों ने एक मंदिर में जाकर शादी कर ली. उनके लिए वो अक्सर हिमालय की गोद फ़िल्म का एक गाना गाया करते थे, चाँद सी महबूबा हो मेरी….”
भारत के महान स्पिन गेंदबाज़ भगवत चंद्रशेखर, मुकेश की आवाज़ के दीवाने थे.
कैप्टन मिलिंद हस्तक अपनी किताब ‘माई क्लोज़ एनकाउंटर्स विद द वॉएस ऑफ़ मुकेश’ में लिखते हैं, “दिलचस्प बात ये थी कि कन्नड़ भाषी चंद्रशेखर को मुकेश के अधिक्तर गाने समझ में नहीं आते थे और न ही उन्हें शास्त्रीय या सुगम संगीत का अधिक ज्ञान था. लेकिन तब भी वो मुकेश और उनके गानों की तरफ़ खिंचे चले आते थे.
उनकी मुकेश से मिलने की दिली इच्छा तब पूरी हुई जब वो भारत की टीम में चुने गए और क्रिकेट खेलने के सिलसिले में उनका अक्सर बंबई आना जाना होने लगा.”
“इसी एक यात्रा के दौरान उनके दोस्त एमजे राजू उन्हें मुकेश से मिलवाने रिकार्डिंग स्टूडियो ले गए. इसके बाद दोनों में गहरी दोस्ती हो गई. जैसे ही चंद्रशेखर बंबई पहुंचते पहला काम मुकेश को फ़ोन करने का करते.
चंद्रशेखर ने कई शामें मुकेश और उनके परिवार वालों के साथ बिताईं. 1975 में जब भारत की टीम बंबई में वेस्ट इंडीज़ के साथ टेस्ट मैच खेल रही थी, मुकेश ने पूरी भारतीय टीम को अपने घर रात्रि भोज पर आमंत्रित किया था.”
भारत ही नहीं विदेश में भी मुकेश बहुत लोकप्रिय थे. मशहूर उद्घोषक जसदेव सिंह जब 1980 का ओलंपिक कवर करने मॉस्को गए तो खुद उन्होंने अपनी आँखों से देखा कि वहाँ मुकेश के गाने कितने लोकप्रिय थे.
जसदेव सिंह ने लिखा, “कितनी ही बार बाज़ारों में मेरे साफ़े से पहचान कर कि मैं भारतीय हूँ, रूसी लोग बेसाख़्ता गाने लगते थे, ‘आवारा हूँ…’ सन 1984 में जब हमारे राकेश शर्मा अंतरिक्ष से लौट रहे थे, हम आर्कटिक प्रदेश के एक छोटे से गाँव से गुज़र रहे थे.
कई दुकानों में मैंने मुकेश के गानों के ऑडियो कैसेट सजे देखे. यही नहीं कई दुकानों के बाहर लगे हुए छोटे छोटे स्पीकरों में मुकेश की आवाज़ गूँज रही थी.”
मुकेश बड़े हैंडसम थे. गोरे, लंबे, हँसमुख और मिलनसार. मुकेश के बारे में मशहूर था कि वो एक कल्चर्ड और हँसने हँसाने वाले इंसान थे.
एक बार मजरूह सुल्तानपुरी ने उनके बारे में लिखा था, “मैं समझता हूँ हमारे गायकों में इतना सोशल और इतना होमली कैरेक्टर का आदमी कोई नहीं हुआ. एक मर्तबा मुकेश एक अच्छा प्यारा सा स्वेटर पहने हुए थे. मैंने बातों बातों में ही कह दिया, मुकेश साहब ये स्वेटर तो बहुत ही उम्दा है. बात आई गई हो गई. वापस लौट कर जब मैं अपनी गाड़ी में बैठने लगा तो देखता क्या हूँ कि वही स्वेटर मेरी गाड़ी में रखा हुआ है. मैंने जब ये स्वेटर उन्हें वापस देना चाहा तो उनका जवाब था, ‘मजरूह साहब ये सिर्फ़ आपके लिए है.”
गायकों में लफ़्ज़ और उसकी फ़ीलिंग को समझने वाला मुकेश से ज़्यादा कोई नहीं था.
लता सुर के बाद लफ़्ज़ को महत्व देती थीं जबकि मुकेश लफ़्ज़ और सुर दोनों को बराबर का महत्व देते थे.
मुकेश के दरियादिली के कई किस्से मशहूर हैं. वो अक्सर शिरडी में साईं बाबा के मंदिर जाया करते थे. एक बार वो वहाँ एक रिक्शे की सवारी कर रहे थे और रिक्शे वाला उनका ही एक गीत गा रहा था, ‘गाए जा गीत मिलन के, तू अपनी लगन के…’
मुकेश ने उसकी तफ़रीह लेने के लिए रिक्शेवाले से कहा, मुझे ये गीत पसंद नहीं आया. रिक्शेवाले को ये बात इतनी बुरी लगी कि उसने रिक्शे में इतनी ज़ोर का ब्रेक लगाया कि मुकेश करीब करीब गिरते हुए बचे.
रिक्शेवाले ने कहा, “ये गाना महान गायक मुकेश ने गाया है और मैं उनके ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं सुन सकता.” मुकेश ने मुस्कराते हुए कहा, वो वहीं मुकेश हैं.
कैप्टन मिलिंद हस्तक लिखते हैं, “अब चौकने की बारी रिक्शेवाले की थी. उसने कहा कि अगर ये सही है तो आप ये गाना गा कर दिखाइए. जब मुकेश ने वो गाना गाया तो रिक्शेवाले की आँखों से आँसू निकल पड़े. उसने मुकेश को अपने रिक्शे पर पूरे शिरडी की सैर कराई और मुकेश ने उसके लिए कई गाने गाए. उन्होंने रिक्शेवाले से पूछा, क्या ये तुम्हारा अपना रिक्शा है? उसके न कहने पर मुकेश ने वो रिक्शा उसे खरीद कर दे दिया. यही नहीं वो उसके घर गए और उसके लिए कपड़े और बर्तन भी ख़रीदे.”
26 अगस्त, 1976 को मुकेश और उनके बेटे नितिन मुकेश ने अमेरिका में डिट्रॉएट में पहली बार एक संगीत सभा में साथ साथ गाया. लेकिन अगले ही दिन 27 अगस्त को मुकेश को दिल का दौरा पड़ा गया और उनको अस्पताल ले जाया गया.
जब उनको आईसीयू में ले जाया गया तो उन्होंने अपने हाथ में ह्रदयनाथ मंगेश्कर की पत्नी भारती द्वारा दी गई रामायण पकड़ रखी थी. लेकिन वो आईसीयू से जीवित नहीं निकल पाए और 40 मिनटों के अंदर 27 August 1976 को उन्होंने दम तोड़ दिया. उस समय उनकी उम्र थी मात्र 53 वर्ष.